कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरु होता हो, कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी व्यक्ति अयोग्य नही होता, उसको काम मे लेने वाले ही दुर्लभ हैं।
कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो मा भूद्राजा कालस्य कारणम्॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व
राजा का कारण काल है, या काल का कारण राजा है, ऐसा सन्देह तुम्हारे मन में नहीं उठना चाहिए; क्योंकि राजा ही काल का कारण होता है। ( राजा का कारण तत्कालीन परिस्थिति है, या राजा तत्कालीन परिस्थिति का कारण है, इस सम्बन्ध में सन्देह ना रहे; राजा (ही) तत्कालीन परिस्थिति का कारण है। )
कोऽतिभारः समर्थानामं किं दूरं व्यवसायिनाम् ।
को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ॥ -- पंचतंत्र
जो समर्थ हैं उनके लिये अति भार क्या है ? व्यवस्सयियों के लिये दूर क्या है? विद्वानों के लिये विदेश क्या है? प्रिय बोलने वालों के लिये कौन पराया है ?
राजा तुष्टोऽपि भृत्यानाम् अर्थमात्रं प्रयच्छति ।
ते तु सम्मानितास् तस्य प्राणैर्प्युपकुर्वते ॥ -- पञ्चतन्त्र
राजा तुष्ट होकर भी अपने भृत्यों को केवल अर्थ (धन) देता है। (लेकिन) यदि वे सम्मानित होते हैं तो उसका (राजा का) अपने प्राण देकर भी उपकार करते हैं।
कृतकृत्यस्य भृत्यस्य कृतं नैव प्रणाशयेत् ।
फलेन मनसा वाचा दृष्ट्या चैनं प्रहर्षयेत् ॥ -- हितोपदेश
भृत्य (सेवक) द्वारा किये गये कार्य को मारना नहीं चाहिये (उसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिये)। बल्कि उनको वाणी, मन और दृष्टि से उसका फल (पुरस्कार) देकर उनको हर्षित करना चाहिये (उत्साहित करना चाहिये)।
देवता पशुपालक की भाँति दण्ड लेकर रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं उसे बुद्धि प्रदान कर देते हैं।
व्याघ्रीव कुट्टनी यत्र रक्तपानामिषैषिणी ।
नास्ते तत्र प्रगल्भन्ते जम्बुका इव कामुकाः ॥ -- समयमातृका ४१, कङ्क नामक नाई कलावती नामक वेश्या से
जिस वेश्या के घर में रक्त-पान एवं मांस भोजन की इच्छावाली व्याघ्री की भाँति कुट्टिनी नहीं रहती वहाँ जम्बुकों (सियारों ) की भाँति कामुकजन धृष्टता करते ही हैं।
तस्मान्मानिनि कापि हेमकुसुमारामोच्चयाय त्वया
माता तावदनेककूटकुटिला काचित्समन्विष्यताम् ।
एताः सुभु भवन्ति यौवनभरारम्भे विजृम्भाभुवो
वेश्यानां हि नियोगिनामिव शरत्काले घनाः संपदः ॥ -- समयमातृका ४९, कङ्क नामक नाई कलावती नामक वेश्या से
इसलिये हे मानिनि ! अत्यधिक धन की अभिवृद्धि के लिये अनेक प्रपञ्च एवं षड्यन्त्र में प्रवीण ( प्रपञ्च एवं षड्यन्त्र में प्रवीण होना ही उसकी कुटिलता है) किसी माता (रक्षाकर्त्री) का अन्वेषण तुम्हें करना चाहिए। हे सुन्दर भृकुटि वाली स्त्री ! जिस प्रकार शरत्काल में कृषकों को प्रचुर सम्पत्ति का लाभ होता है, उसी प्रकार पूर्ण यौवनावस्था के समय में वेश्याओं के लिये ये मातायें पर्याप्त सम्पत्ति का कारण होती हैं।
अस्त्येव सा बहुतराङ्कवती तुलेव
कालस्य सर्वजनपण्यपरिग्रहेषु ॥
क्षिप्रकृष्टपल कल्पनया ययासौ
भागीकृतः परिमितत्वमुपैति मेरुः ॥ -- समयमातृका ५०, कङ्क नामक नाई कलावती नामक वेश्या से
जिसे तुम माता बनाओगी वह, सम्पूर्ण प्राणिरूप पण्य ( खरीदने की वस्तु ) के ग्रहण करने में विस्तीर्ण मध्यभागवाली काल की उस तुला (तराजू) की भाँति होगी (होनी चाहिये), जिस तुला ( पक्षान्तर में स्त्री) के द्वारा अतिशीघ्र पलकल्पना से (एक एक पल के रूप में करने से अर्थात् ग्रहण करने से ) भागीकृत ( बाँटा या काटा गया ) यह मेरु ( पक्षान्तर मेरुसदृश धनी व्यक्ति ) भी परिमितता को प्राप्त हो जाता है अर्थात् सामान्य बन जाता है।
भीष्म और द्रोण जिसके दो तट हैं, जयद्रथ जिसका जल है, शकुनि ही जिसमें नीलकमल है, शल्य जलचर ग्राह है, कर्ण तथा कृपाचार्य ने जिसकी मर्यादा को आकुल कर डाला है, अश्वत्थामा और विकर्ण जिस के घोर मगर हैं, ऐसी भयंकर और दुर्योधन रूपी भंवर से युक्त रणनदी को केवल श्रीकृष्ण रूपी नाविक की सहायता से पाण्डव पार कर गये।
२०वीं शताब्दी के प्रबन्धन का सबसे महत्वपूर्ण और वस्तुतः अनन्य योगदान यह था कि उसने विनिर्माण के श्रमिकों की उत्पादकता को ५० गुना बढ़ा दिया।-- पीटर ड्रकर
उस व्यक्ति को प्रबन्धक के पद पर नहीं नियुक्त किया जाना चाहिये जिसकी दृष्टि मनुष्य की शक्ति के बजाय पर केन्द्रित होने के उसकी कमजोरियों पर केन्द्रित रहती हो।-- पीटर ड्रकर
प्रबन्धक लक्ष्य निर्धारित करता है, प्रबन्धक संगठित करता है, प्रबन्धक मोटिवेट करता है और अपनी बात सामने रखता है, प्रबन्धक एक मापदण्ड स्थापित करते हुए (कार्य का) मापन करता है, - प्रबन्धक लोगों का विकास करता है।-- पीटर ड्रकर