प्रज्ञा सुभाषित-3

विकिसूक्ति से

201) अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठों। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।

202) दो याद रखने योग्य हैं-एक कत्र्तव्य और दूसरा मरण।

203) कर्म ही पूजा है और कत्र्तव्यपालन भक्ति है।

204) र्हमान और भगवान्‌ ही मनुष्य के सच्चे मित्र है।

205) सम्मान पद में नहीं, मनुष्यता में है।

206) महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है।

207) चिंतन और मनन बिना पुस्तक बिना साथी का स्वाध्याय-सत्संग ही है।

208) बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया।

209) सबकी मंगल कामना करो, इससे आपका भी मंगल होगा।

210) स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक धर्म कत्र्तव्य है।

211) स्वाध्याय को साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर अपने आवश्यक नित्य कर्मों में स्थान दें।

212) अपना आदर्श उपस्थित करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।

213) प्रतिकूल परिस्थितियों करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।

214) प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम अधीर न हों।

215) जैसा खाय अन्न, वैसा बने मन।

216) यदि मनुष्य सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल उसे कुछ न कुछ सिखा देती है।

217) कत्र्तव्य पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।

218) इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।

219) काल(समय) सबसे बड़ा देवता है, उसका निरादर मत करा॥

220) अवकाश का समय व्यर्थ मत जाने दो।

221) परिश्रम ही स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है।

222) व्यसनों के वश मेंं होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है।

223) संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर जरूर हँसना चाहिए।

224) विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे।

225) अज्ञानी वे हैं, जो कुमार्ग पर चलकर सुख की आशा करते हैं।

226) जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।

227) अज्ञान और कुसंस्कारों से छूटना ही मुक्ति है।

228) किसी को गलत मार्ग पर ले जाने वाली सलाह मत दो।

229) जो महापुरुष बनने के लिए प्रयत्नशील हैं, वे धन्य है।

230) भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले आलसी सदा दीन-हीन ही रहेंगे।

231) जिसके पास कुछ भी कर्ज नहीं, वह बड़ा मालदार है।

232) नैतिकता, प्रतिष्ठाओं में सबसे अधिक मूल्यवान्‌ है।

233) जो तुम दूसरों से चाहते हो, उसे पहले तुम स्वयं करो।

234) वे प्रत्यक्ष देवता हैं, जो कत्र्तव्य पालन के लिए मर मिटते हैं।

235) जो असत्य को अपनाता है, वह सब कुछ खो बैठता है।

236) जिनके भीतर-बाहर एक ही बात है, वही निष्कपट व्यक्ति धन्य है।

237) दूसरों की निन्दा-त्रुटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।

238) आत्मोन्नति से विमुख होकर मृगतृष्णा में भटकने की मूर्खता न करो।

239) आत्म निर्माण ही युग निर्माण है।

240) जमाना तब बदलेगा, जब हम स्वयं बदलेंगे।

241) युग निर्माण योजना का आरम्भ दूसरों को उपदेश देने से नहीं, वरन्‌ अपने मन को समझाने से शुरू होगा।

242) भगवान्‌ की सच्ची पूजा सत्कर्मों में ही हो सकती है।

243) सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता।

244) स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है।

245) अपने आपको सुधार लेने पर संसार की हर बुराई सुधर सकती है।

246) अपने आपको जान लेने पर मनुष्य सब कुछ पा सकता है।

247) सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।

248) उनसे दूर रहो जो भविष्य को निराशाजनक बताते है।

249) सत्कर्म ही मनुष्य का कत्र्तव्य है।

250) जीवन दिन काटने के लिए नहीं, कुछ महान्‌ कार्य करने के लिए है।

251) राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है।

252) इतराने में नहीं, श्रेष्ठ कार्यों में ऐश्वर्य का उपयोग करो।

253) सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर रहती है।

254) जीभ पर काबू रखो, स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए खाओ।

255) श्रम और तितिक्षा से शरीर मजबूत बनता है।

256) दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है।

257) पराये धन के प्रति लोभ पैदा करना अपनी हानि करना है।

258) ईष्र्या और द्वेष की आग में जलने वाले अपने लिए सबसे बड़े शत्रु हैं।

259) चिता मरे को जलाती है, पर चिन्ता तो जीवित को ही जला डालती है।

260) पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमेंं से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा।

261) आराम की जिन्गदी एक तरह से मौत का निमंत्रण है।

262) आलस्य से आराम मिल सकता है, पर यह आराम बड़ा महँगा पड़ता है।

263) ईश्वर उपासना की सर्वोपरि सब रोग नाशक औषधि का आप नित्य सेवन करें।

264) मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है।

265) किसी बेईमानी का कोई सच्चा मित्र नहीं होता।

266) शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं, पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है।

267) वाणी नहीं, आचरण एवं व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश है

268) आत्म निर्माण का अर्थ है-भाग्य निर्माण।

269) ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है।

270) बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माता की गोद में होती है।

271) शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं।

272) शिक्षक नई पीढ़ी के निर्माता होत हैं।

273) समाज सुधार सुशिक्षितों का अनिवार्य धर्म-कत्र्तव्य है।

274) ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं।

275) अब भगवानÔ गंगाजल, गुलाबजल और पंचामृत से स्नान करके संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। उनकी माँग श्रम बिन्दुओं की है। भगवान्‌ का सच्चा भक्त वह माना जाएगा जो पसीने की बूँदों से उन्हें स्नान कराये।

276) जो हमारे पास है, वह हमारे उपयोग, उपभोग के लिए है यही असुर भावना है।

277) स्वार्थपरता की कलंक कालिमा से जिन्होंने अपना चेहरा पोत लिया है, वे असुर है।

278) मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है।

279) दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है और वह है आदमी की उत्कृष्ट व्यक्तित्व।

280) जब तक तुम स्वयं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होत, तब तक कोई तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।

281) सूर्य प्रतिदिन निकलता है और डूबते हुए आयु का एक दिन छीन ले जाता है, पर माया-मोह में डूबे मनुष्य समझते नहीं कि उन्हें यह बहुमूल्य जीवन क्यों मिला ?

282) दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन्‌ मनुष्य की कृपणता का नाम दरिद्रता है।

283) हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।

284) कामना करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्त शब्द के साथ में भगवान्‌ की इच्छा पूरी करने की बात जुड़ी रहती है।

285) भगवान्‌ आदर्शों, श्रेष्ठताओं के समूच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य के जो त्याग और बलिदान है, वस्तुत: यही भगवान्‌ की भक्ति है।

286) आस्तिकता का अर्थ है-ईश्वर विश्वास और ईश्वर विश्वास का अर्थ है एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है।

287) पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए; क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना।

288) अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।

289) जो मन की शक्ति के बादशाह होते हैं, उनके चरणों पर संसार नतमस्तक होता है।

290) एक बार लक्ष्य निर्धारित करने के बाद बाधाओं और व्यवधानों के भय से उसे छोड़ देना कायरता है। इस कायरता का कलंक किसी भी सत्पुरुष को नहीं लेना चाहिए।

291) आदर्शवाद की लम्बी-चौड़ी बातें बखानना किसी के लिए भी सरल है, पर जो उसे अपने जीवनक्रम में उतार सके, सच्चाई और हिम्मत का धनी वही है।

292) किसी से ईष्र्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है, पर अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-संतोष अवश्य खो देता है।

293) ईष्र्या की आग में अपनी शक्तियाँ जलाने की अपेक्षा कहीं अच्छा और कल्याणकारी है कि दूसरे के गुणों और सत्प्रयत्नों को देखें जिसके आधार पर उनने अच्छी स्थिति प्राप्त की है।

294) जिस दिन, जिस क्षण किसी के अंदर बुरा विचार आये अथवा कोई दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति उपजे, मानना चाहिए कि वह दिन-वह क्षण मनुष्य के लिए अशुभ है।

295) किसी महान्‌ उद्द्‌ेश्य को लेकर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से रुक जाना अथवा पीछे हट जाना।

296) सहानुभूति मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है।

297) असफलताओं की कसौटी पर ही मनुष्य के धैर्य, साहस तथा लगनशील की परख होती है। जो इसी कसौटी पर खरा उतरता है, वही वास्तव में सच्चा पुरुषार्थी है।

298) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।

299) जाग्रत आत्माएँ कभी चुप बैठी ही नहीं रह सकतीं। उनके अर्जित संस्कार व सत्साहस युग की पुकार सुनकर उन्हें आगे बढ़ने व अवतार के प्रयोजनों हेतु क्रियाशील होने को बाध्य कर देते हैं।

300) जाग्रत्‌ अत्माएँ कभी अवसर नहीं चूकतीं। वे जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित होती हैं, उसे पूरा किये बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता।