पण्डित लेखराम

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पण्डित लेखराम आर्य समाज के प्रसिद्ध विद्वान थे। वे अपने विपक्षी को अपनी बुद्धिमत्ता से निरुत्तर कर देते थे। उनकी पुस्तक 'तकज़ीब बुराहिन अहमदिया' ( अहमदी युक्तियों का खण्डन) जो उन्होंने मिर्जा गुलाम अहमद की आर्यसमाज के विरोध में लिखी गई पुस्तक का प्रति उत्तर था।

विचार[सम्पादन]

  • जब हिन्दृ इतने दृढ़ हो जावेगेँ कि वे मुसलमान पुरूष या स्त्री को अपना सहधर्मी बना सकेगेँ तो वे सुरक्षित हो जावेँगे।
  • मुसलमान रबाबी अमृतसर के दरबार साहिब में कई पीढ़ियोँ से गुरूग्रन्थ साहिब के भजन गाते हैँ किन्तु फिर भी मुसलमान हैँ। इसके विपरीत स्थिति मेँ हिन्दू यदि किसी मस्जिद मेँ प्रतिदिन दीपक जलाता हो या कुरान का पाठ करता हो तो सम्भव नहीँ कि वह एक पीढ़ी मेँ भी अपने धर्म पर टिका रहे। हिन्दुओँ को कट्टरता अपनाने के साथ-साथ विधर्मियोँ के ग्रन्थोँ की कमियोँ का भी अध्ययन करना चाहिए।
  • दाढ़ी तो बकरोँ की होती है, मूँछे सिंह की होती हैं।
  • स्नान करना शरीर का धर्म है, संध्या करना आत्मा का धर्म है।

"हिन्दू इतनी बड़ी संख्या में मुस्लमान कैसे हो गए" के उत्तर में[सम्पादन]

(१) मुस्लमान आक्रमण में बलातपूर्वक मुसलमान बनाया गया।
(२) मुसलमानी राज में जर, जोरू व जमीन देकर कई प्रतिष्ठित हिन्दुओ को मुस्लमान बनाया गया।
(३) इस्लामी काल में उर्दू, फारसी की शिक्षा एवं संस्कृत की दुर्गति के कारण बने।
(४) हिन्दुओं में पुनर्विवाह न होने के कारण व सती प्रथा पर रोक लगने के बाद हिन्दू औरतो ने मुस्लमान के घर की शोभा बढाई तथा अगर किसी हिन्दू युवक का मुस्लमान स्त्री से सम्बन्ध हुआ तो उसे जाति से निकल कर मुस्लमान बना दिया गया।
(५) मूर्तिपूजा की कुरीति के कारण कई हिन्दू विधर्मी बने।
(६) मुसलमानी वेशयायो ने कई हिन्दुओं को फंसा कर मुस्लमान बना दिया।
(७) वैदिक धर्म का प्रचार न होने के कारण मुस्लमान बने।
  • परमात्मा शुद्ध और एकरस है। उसी प्रकार से उनका दिया हुआ ज्ञान भी शुद्ध और परिवर्तन रहित होना चाहिए, न कि त्रुटिपूर्ण और परिवर्तनशील। पूर्ण और शुद्ध को बदलने की आवश्यकता नहीं होती। अपूर्ण और दोषयुक्त का पूर्ण और सर्वज्ञ से प्रकट होना असंभव है। सृष्टि के आदि काल में चार ऋषियों से लेकर श्री राम , श्री कृष्ण से लेकर मूसा, मसीह के समय से लेकर वह ज्ञान आज भी वही है। सूर्य सदा विद्यमान रहता है, मगर आंखें खोलना और पक्षपात या आवरण रहित होकर देखना और विचार करना तथा लाभ उठाना योग्यता पर निर्भर है।
जो आक्षेप तुमने वेद पर लगाया है वो क़ुरान पर भी लागू होता है। क़ुरान के खुदा के पास जो ज्ञान की पूंजी थी, वह क़ुरान में बाँट चुका। और फिर कयामत (अर्थात प्रलय) तक खाली रह गया और उसके मुख पर मुहर लग गई। मुहम्मद के पश्चात किसी रसूल को भेजने की उसमें शक्ति न रही। परिवर्तन की आवश्यकता भूल में होती है और बढ़ाने की आवश्यकता अपूर्ण में, जहाँ अशुद्धि हो वहां से दूर रहना पड़ता है और जहाँ भूल हो वहां से सावधान होना। फिर इलहाम के बारबार परस्पर विरुद्ध और अपूर्ण भेजने की क्या आवश्यकता थी? यह ईश्वरीय नियम है या सरकार के नियम। पर ऐसा प्रतीत होता है कि बार-बार इलहाम भेजने से आपको इलहामी (ईश्वर द्वारा प्रेरित), मुजदद (सुधारक), मसीह सानी (ईश्वर दूत), मुरशिद (पीर), छोटा नबी आदि कौन कहे और चढ़ावे किस को चढ़े। -- मिर्जा गुलाम अहमद के साथ शास्त्रार्थ में, वेदों पर मिर्जा के इस आक्षेप पर कि "इस्लाम का अल्लाह दुनिया में छा रहे अंधेरों को बार बार दूर करने के लिए इलहाम (ईश्वरीय वाणी) भेज देता है जबकि वेद का ईश्वर एक ही बार ज्ञान प्रकट करके कुछ ऐसा सोया कि फिर ना जागा।"
  • पंडित चार प्रकार के होते हैं-
१) वह अनपढ़ पंडित जो शनिवार को तेल एकत्र कर लोगों को लूटता है और खुद मौज करता है। ये लोग मूर्खों के समाने पंडित हैं और किसी भी दशा में विश्वास के योग्य नहीं हैं।
२) ब्राह्मणों के वो बेटे-पोते जिनके बाप दादा किसी समय पूर्ण विद्वान थे। कितने ही खुद नौकरी, दुकानदारी आदि कार्य करते हैं पर संस्कृत से शून्य हैं। इनके पूर्वजों के कारण मुर्ख लोग इनको पंडित समझते हैं जो सर्वथा भूल और अज्ञान है। इनका प्रयोग कोई भी धन आदि प्रलोभन देकर अपने पक्ष में साक्षी के लिए करता है। मिर्जा ऐसे लोगों से अपने आपको कादियानी परमेश्वर सिद्ध करने में लगे हैं।
३) वे लोग जो विद्या की योग्यता तो रखते हैं, किन्तु उदर पूर्ति के लिए गलत पक्ष का साथ देते हैं। पंडित होने पर भी महामूर्ख के काम करते हैं। जैसे अकबर के समय पंडितों ने धन लेकर 'अकबरसहस्रनाम' और 'अल्लोपनिषद' या 'अल्लाह सूक्त' रचकर अकबर को पैगम्बरी की बधाई पहुंचाई थी। अँधा पिसे धोये धान की कहावत को चरित्रार्थ करते हुए बादशाह हुए उसके खुशामदी वजीरों ने इन्हें मालामाल कर दिया। अकबर के समय यह कलमा भी बनाया गया था कि लाइला इल्लिल्लाह अकबर ख़लीफ़तुल्लाह। सलाम अलेकुम के स्थान पर अल्लाह अकबर तथा जल्ल जलालहु प्रचलित किया गया।
४) वे लोग हैं, जो ज्ञान और महत्व से पूर्ण, सच्चाई और सत्य भाषण में अद्वितीय हैं। लोभ और लालच से परे ईर्ष्या और द्वेष से किनारे, जुठ से घृणा करने वाले और सत्य से प्रेम रखने वाले हैं। सत्य शास्त्रों में इन्हीं को पंडित बताया गया है जिसको आत्मज्ञान आलस्य से रहित हो, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ हानि, स्तुति निंदा, हर्ष-शोक कभी न करे। धर्म में ही नित्य निश्चित रहे। जिस के मन को विषय सम्बन्धित वस्तु खींच न सके। वह पंडित कहलाता है।-- मिर्जा द्वारा वेदों के तीन या चार होने सम्बन्धी पंडितों के कथन के आक्षेप का उत्तर देते हुए
  • वेदों से समस्त संसार में एकेश्वरवाद फैला। जो मिर्जा ने आक्षेप किये है वह वेद की शिक्षा न होने का परिणाम है और वेद विरुद्ध चलने का कारण। मुसलमानों की अपेक्षा की तुलना में हिन्दू कहीं अधिक अच्छे हैं। मुसलमानों में देखो कहीं कोई मुहम्मद पूजा, अली पूजा, गौस आजम की पूजा, पीर पूजा, कब्र पूजा, सरवरपरस्ती, मदीना परस्ती, काबा परस्ती, करबला परस्ती, तक़लीद परस्ती, किताब परस्ती, संग अस्वद परस्ती, जमजम परस्ती, मुइनुद्दीन परस्ती, ताजियां परस्ती, आदम परस्ती, भूत -जिन्न परस्ती करता दिखता है। सारांश यह है कि मुसलमानों में अज्ञान और अविद्या क़ुरान के होते हुए कहाँ से फैली? मिर्जा साहिब पहले अपनी चारपाई के नीचे लाठी फेर लो फिर किसी पर उँगली उठाना। -- मिर्जा के इस आक्षेप के उत्तर में कि " आज वेद संसार में कहाँ प्रचलित है? वेद के नाम पर तो जड़ पूजा जैसे मूर्तिपूजा, गृह पूजा, सूर्य आदि की पूजा आदि बहुदेवता पूजा नजर आती हैं। सारा हिन्दू समाज इसी में डूबा हुआ है।"

'तकज़ीबे बुराहीने अहमदिया’ (अहमदी युक्तियों का खण्डन) से कुछ विचार[सम्पादन]

  • यह सत्य है कि हठ और पक्षपात मनुष्य की आंखों को अन्धा कर देते हैं और उसे दिन का प्रकाश होने पर भी कुछ नहीं सूझता ।
  • वैदिक पद्धति से उपासना के लिए सम्पूर्ण देवताओं का स्वामी और सब प्रकाशक वस्तुओं का प्रकाशक एक विश्व-देव अर्थात् सर्वज्ञ परमेश्वर है, दूसरा कोई नहीं; और यही वेद का उच्च भाव है ।
  • सायण और महीधर आदि के भाष्य निघण्टु आदि कोष और ब्राह्मण ग्रन्थों के विरुद्ध होने से प्रमाण योग्य नहीं हैं । उन्हीं का अनुकरण करने से मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स और विलसन के भाष्य भी सत्य से पृथक् हैं ।
  • पक्षपात के रोग की औषधि सत्य ज्ञान की प्राप्ति है ।
  • मैं आर्य धर्म को मानता हूं और वेदोक्त सिद्धान्तों पर प्राण न्यौछावर होने तक को अहोभाग्य जानता हूं ।
  • मुझे व्यर्थ की बात बढ़ाने से कोई प्रयोजन नहीं है, न व्यर्थ की प्रतिज्ञा से । मुझे सत्य से ही प्रेम है और असत्य से घृणा।
  • असत्य चाहे कितना भी शोर दिखावे अथवा दुहाई और बावेला मचावे, अन्त में सत्य की ही जय होगी और असत्य का क्षय ।
  • पवित्र वेद – जो पुस्तकों (शास्त्रों) की माता है, आर्य धर्म उसी का सार है। आर्यों के सब नियमों का प्रमाण वेद से मिलता है और वो सर्वतन्त्र सिद्धान्तों के सहित व्याख्या रूप में विद्यमान हैं।
  • ‘आर्य’ के अर्थ श्रेष्ठ, नेक तथा आस्तिक हैं, और ‘समाज’ का अर्थ होता है सभा । इन दोनों शब्दों की योजना से बने ‘आर्यसमाज’ का अर्थ होता है – वेदानुयायी, आस्तिकों वा श्रेष्ठों की सभा ।
  • ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में प्रत्येक शारीरिक और आत्मिक विषय की उत्तमता से शिक्षा दी गई है, जिसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है और न इस पर किसी प्रकार का आक्षेप हो सकता है । हां, उनकी एक-एक श्रुति सत्यप्रिय तथा जिज्ञासु मनुष्यों को कल्याण-मार्ग दिखाती है ।
  • हम आर्य लोग वेद-भगवान की शिक्षा के अनुसार इस बात को अपना परम धर्म समझते हैं कि परमेश्वर सब जीवों, जगत् के परमाणुओं आदि का स्वामी है, और अनादि सामर्थ्य के कारण अनादि काल से ही ये अनादि पदार्थ उसके स्वामित्व में विद्यमान हैं । उसकी अनन्त विद्या तथा असीमित ज्ञान के कारण किसी को उसके ज्ञान से दूर वा लुप्त नहीं मानते ।
  • वेदोक्त धर्म में अन्धाधुन्ध किसी का अनुकरण करना अनुचित है और असत्य पर आक्षेप करना सर्वथा युक्त एवं उचित ।
  • जिस बात के समझने में बुद्धि असमर्थ है, उस पर विचार करना सर्व प्रकार से बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता है ।
  • हमें उचित है कि सत्य को पाकर भी सत्य की परीक्षा करते रहें अर्थात् सत्य को समझ कर भी चुप न साध लें, किन्तु असत्य के निर्मूल करने में डटे रहें ।

'कुलयात आर्य मुसाफिर' में संग्रहीत 'धर्म-प्रचार' नामक लेख[सम्पादन]

  • हमारी आर्य जाति अविद्यान्धकार की निद्रा में सो गई है। अब इसे जागते हुए संकोच होता है कहां वह ऋषि मुनियों का पवित्र युग और कहाँ उनकी वर्तमान संतति की यह दुर्गति। त्राहि माम् त्राहि माम्।
प्रिय‌ भाईयो ! 4990 वर्ष हुए जबकि महाराजा युधिष्ठर का चक्रवर्ती धर्मराज पृथ्वी में वर्त्तमान था। उस समय कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई बौद्ध, कोई जैन इस भारतवर्ष में विद्यमान नहीं था।प्रत्युत सारे संसार में भी कहीं उनका चिन्ह तक न था। समस्त प्रजा वैदिकधर्म और शास्त्रोक्त कर्म में संलग्न थी। सदियों पश्चात जब अविद्या के कारण मद्यमाँस, व्याभिचार आदि इस देश में बढ़ने लगा।तब 2490 वर्ष बीते कि नेपाल प्रान्त में एक साखी सिंह नामक व्यक्ति ने जो नास्तिक था बुद्धमत चलाया।राजबल भी साथ था। उसी लोभ से बहुत से पेट पालक ब्राह्मण उसके साथ हो गए जिससे बुद्धमत सारे भारत में फैल गया। काशी, कश्मीर, कन्नौज के अतिरिक्त कोई नगर भारत में ऐसा न रहा जो बौद्ध न हो गया हो।जब यह मत बहुत बढ़ गया और लोग वेदधर्म से पतित हुए। यज्ञोपवीत आदि संस्कार छोड़ बैठे।तब दो सौ वर्ष के लगभग हुए कि एक महात्मा शंकर स्वामी (जिसे लोग स्वामी शंकराचार्य भी कहते हैं) ने कटिबद्ध हो शिष्यों सहित बौद्धों से शास्त्रार्थ करने आरम्भ किये। भला नास्तिक लोगों के हेत्वाभास वेद शास्त्रज्ञ के सम्मुख क्या प्रभाव डाल सकते थे?
एक दो प्रसिद्ध स्थानों पर विजयी होने के कारण शंकर स्वामी का सिंहनाद दूर-दूर तक गुंजायमान हो उठा। बहुत से राजाओं ने वैदिक धर्म स्वीकार कर लिया। दस बारह वर्ष में ही शंकराचार्य के शास्त्राथों के कारण समस्त देश के बौद्धों में हलचल मच गई। शंकराचार्य के शास्त्रार्थों में यह शर्तें होती थीं कि :-
(१) जो पराजित हो अर्थात शास्त्रार्थ में हारे वह दूसरे का धर्म स्वीकार करे।
(२) यदि साधू हो तो संन्यासी का शिष्य हो जाए।
(३) यदि यह दोनों बातें स्वीकार नहीं तो आर्यावर्त देश छोड़ जाये।
इन तीन नियमों के कारण करोड़ों बौद्ध और जैन पुनः वैदिक धर्म में आए और प्रायश्चित किया। उनको शंकर स्वामी ने गायत्री बताई। यज्ञोपवीत पहनाए। जो बहुत हठी थे और पक्षपात की अग्नि में जल रहे थे। इस प्रकार के लाखों व्यक्ति आर्यावर्त्त से निकल गए।राजाओं की ओर से कश्मीर, नैपाल, केपकुमारी, सूरत, बंगाल आदि भारत के सीमान्त स्थानों पर संन्यासियों के मठ बनाए गए और वहाँ सेना भी रही जिससे बौद्ध वापिस न आ सकें।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि भारत, जिससे व‌ह धर्म उत्पन्न हुआ और एक समय ऐसा भी आया जबकि सारा भारत बौद्ध था परन्तु अब उस भारत में उस मत का व्यक्ति भी दृष्टिगोचर नहीं होता।| भारत के चारों ओर लंका, ब्रह्मा, चीन, जापान, रूस, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान आदि में करोडों बौद्ध हैं। जैनी अब भी भारत में बहुत न्यून अर्थात् 6-7 लाख हैं। यह लोग छिप छिप कर कहीं गुप्तरूप से रह गए। महात्मा शंकराचार्य जी 32 वर्ष की अवस्था में परलोक सिधार गए। अन्यथा देखते कि वही ऋषि मुनियों का युग पुनः लौट आता।शंकराचार्य की ओर से जन्म के जैनियों और बौद्धों के लिये केवल यही प्रायश्चित था कि एक दो दिन व्रत रखवा कर उन्हें यज्ञोपवीत पहनाया जाए और गायत्री मन्त्र बताया जाए। परिणामस्वरूप 25 करोड़ मनुष्य प्रायश्चित कर, गायत्री पढ़, यज्ञोपवीत पहन वर्णाश्रम धर्म में आ गये। जब कि चार पांच सौ वर्षों तक वह बौद्ध और जैन रहे थे। बौद्ध लोग वर्णाश्रम को नहीं मानते। खाना पीना भी उनका वेद विरुद्ध है। वह सब प्रकार का माँस खा लेते हैं। चीन के इतिहास और ब्रह्मा के वृत्तान्त से यह बात सब लोग ज्ञात कर सकते हैं। 1200 वर्ष हुए कि यहां पर मुसलमानों ने सूरत और अफगानिस्तान की ओर से चढ़ाई की। आर्यावर्त्त में वैदिक धर्म छूट जाने और पुराणों के प्रचार के कारण सैकड़ों मत थे। इन वेद विरुद्ध मतों के कारण घर घर में फूट हो रही थी। धर्म के न रहने और वाममार्ग के फैलने से व्याभिचार भी बहुत फैला हुआ था। व्याभिचार प्रसार तथा अल्पायु के विवाहों के कारण बल, शक्ति, ब्रह्मचर्य और उत्साह का नाश हो रहा था। ऐसी अवस्था में एक जंगली जाति का हमारे देश पर विजयी होना कौन सा कठिन कार्य था ? हमारी निर्बलता का एक स्पष्ट प्रमाण यह है कि सोमनाथ के युद्ध में महमूद के साथ 10-15 हजार सेना थी और हिन्दु राजाओं के पास 10-15 लाख सेना थी। परन्तु हिन्दु ही पराजित हुए और महमूद विजयी हुआ। आप जानते हैं कि सौ हजार का एक लाख होता है। मानो एक अफगान के सम्मुख सौ हिन्दु थे। ऐसे अवसर पर पराजित होने का कारण ब्रह्मचर्य की हानि और धर्माभाव ही था और कारण इसके अतिरिक्त न था।आप ध्यान से विचार कर ले। तारीखे हिन्द में लिखा है कि इस देश में सर्वप्रथम बापा (राजा चित्तौड़) एक मुसलमानी पर आसक्त होकर मुसलमान हो गया। परन्तु लज्जा से खुरासान चला गया और वहाँ ही मर गया। उसके पीछे उसका हिन्दु बेटा राजगद्दी पर बैठा।
दूसरा इस देश में सुखपाल (राजा लाहौर‌) धन और राज्य के लोभ से महमूद के समय में मुसलमान हो गया। जिस पर महमूद उसको राजा बना कर चला गया। महमूद के जाने के पश्चात वह पुनः हिन्दु हो गया और ब्राह्मणों ने उसे मिला लिया।
कश्मीर एक बादशाह के अत्याचार से बलपूर्वक मुसलमान किया गया था। अभी तक उनकी उपजातियां भट्ट कौल आदि हैं।
ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन सब में से जो-जो मुसलमान हुए, प्रायः बल प्रयोग से हुए। कोई भी प्रसन्नता, आनन्द अथवा इसलाम को पसन्द करके मुसलमान‌ नहीं हुआ।
बहुत से लोग जागीर आदि के लोभ से मुसलमान हुए जिनकी वंशावलियां स्पष्ट बताती हैं कि पिता पितामह अथवा दो तीन पीढ़ी से ऊपर वे हिन्दु थे।
बहुत से हिन्दु युवक मुसलमानी वैश्याओं के प्रेमपाश में बन्दी हो कर विधर्मीं हुए। जो अपने प्रेमियों को इसी दीन की शिक्षा दिया करती हैं।जिनके पहले और अब भी सहस्त्रों उदाहरण प्रत्येक प्रान्त और भाग में मिलते हैं।
बड़े-बड़े योग्य पण्डित भी वेश्याओं के अन्धकूप में डूब गये। उदाहरणार्थ गंगा लहरी के रचयिता जगन्नाथ शास्त्री हैं।
लाखों सूरमा वीर हृदय वाले महात्मा जान पर खेल कर धर्म पर बलि दे गये। शीश दिये किन्तु धर्म नहीं छोड़ा। दाहरणार्थ देखो शहीदगंज और टाड राजस्थान।
आप जानते हैं जब मुसलमान नहीं आए थे। तो उनकी जियारतें, कबरें, मकबरे, खानकाहें और गोरिस्तान भी इस देश में न थे जब 8-9 सौ वर्ष से मुसलमान आए तब से ही भारत में कबरपरस्ती शुरू हुई। अत्याचारी मुसलमान हिन्दु वीरों के हाथ से मारे गए। मुसलमानों ने उनको शहीद बना दिया और हिन्दुओं को जहन्नुम (नारकीय) शोक। शत सहस्त्र शोक |
हमारे पिता पितामहों की रक्तवाहिनी असिधारा ने जिन अत्याचारियों का वध किया, हमारे पूर्वजों के हाथों से जो लोग मर कर दोजख (नरकाग्नि) में पहुँचाए गए। हम अयोग्य सन्तान और कपूत पुत्र उन्हें शहीद समझ कर उन पर धूपदीप जलाते हैं। इस मूर्खता पर शोकातिशोक! अपमान की कोई सीमा नहीं रही। परमेश्वर ! यह दुर्गति कब तक रहेगी ?
ऐ हिन्दु भाइयो ! सारे भारत में जहां पक्के और ऊँचे कबरिस्तान देखते हो, वह लोग तुम्हारे ही पूर्वजों के हाथों से वध किये गये थे। उनके पूजने से तुम्हारी भलाई कभी और किसी प्रकार सम्भव नहीं। थ‌म अच्छी प्रकार सोच लो।
अगर पीरे मुर्दा बकारे आमदे।
जि शाहीन मुर्दा शिकार आमदे॥
यदि मरा हुआ पीर काम आ सकता तो मृत बाज भी शिकार कर सकते। मुसलमानों ने मन्दिर तोड़े, बुत तोड़े। लाखों का वध किया। इस कठोर आघात के कारण लोग मुसलमान हुए। देखो, तैमूर का रोजनामचा (डायरी)
परन्तु भारत ऐसा दुर्भाग्यशाली न था कि ईरान, रोम, मिश्र और अरब की भाँति कभी न जागता। च 2 में जगाने वाले उसे जगाते रहे।
मुसलमानों के अत्याचार से ही सती प्रथा प्रचलित हुई ताकि ऐसा न हो कि वे निर्दयी देवियों को पकड़ कर खराब करें। रानी पद्ममनी का सती होना और अलाउद्दीन का अत्याचार। स घटना से सम्बन्धित इतिहास ध्यान से पढ़ो।
पहला प्रायश्चित – सबसे प्रथम आर्यावर्त में शंकराचार्य जी ने 25 करोड़ बौद्धों का प्रायश्चित करा उनको वैदिक धर्म में प्रविष्ट कराया।
दूसरा प्रायश्चित – महाराजा चन्द्रगुप्त ने किया अर्थात सल्यूकस-बावल के अधिपति (युनान के राजा) की पुत्री से विवाह किया जिसको आज दो सहस्त्र एक सौ वर्ष हुए।
तीसरा प्रायश्चित – राना उदयपुर ने किया जिसने ईरान के राजा नौशेरवां पारसी की कन्या से, जो कि कुस्तुन्तुनिया के राजा सारस की दोहती (दुहित्री) थी, उस से विवाह किया जिसे 13 सौ वर्ष हुए हैं।
चौथा प्रायश्चित – लाहौर के पण्डितों ने राजा सुखपाल का कराया जिसको आठ सौ वर्ष हुए हैं।
पाँचवां प्रायश्चित – मरदाना मुसलमान का बाबा नानक जी ने कराया जिस को चार पाँच सौ वर्ष हुए और उस के शव को खुर्जा में अग्नि में जलाया।
छठा प्रायश्चित – पण्डित बीरबल और राजा टोडरमल ने अकबर बादशाह का कराया, और उसका नाम महाबलि रखा। गायत्री सिखाई, पढ़ाई, यज्ञोपवीत पहनाया और हिन्दु बनाया। गोवध निषेध और मांसाहार से घृणा हो गई। उसने दाड़ी के साथ इसलाम को सलाम कर दिया। फुट नोट : वर्तमान इतिहासकारों ने अकबर का हिन्दु होना कहीं नहीं माना – अनुवादक|]आज्ञा दी कि जो हिन्दू भूल से, अज्ञान से, प्रेमपाश में बन्ध कर अथवा लोभ से मुसलमान हो गया हो।यदि वह अपने हिन्दु धर्म में आना चाहता हो तो वह स्वतन्त्र है। उसे मत रोको। यदि कोई हिन्दु स्त्री किसी मुसलमान के फन्दे में मुसलमान होना चाहे तो उसे कदापि मुसलमानी न बनने दिया जाए। प्रत्युत सम्बन्धियों को सौंपी जाए। विस्तार से देखो।(दबिस्ताने मजाहिब पृ.334, 338 शिक्षादश नवल किशोर)
सातवाँ प्रायश्चित – गुरु गोविन्द सिंह जी ने कराया। अत्याचारी औरंगजेब के समय में उन्होंने समस्त मजहबियों को सिंह बना कर वैदिक धर्म में सम्मिलित किया। इस के अतिरिक्त उन के दो सिख एक बार मुसलमानों नें पकड़ कर बलात् मुसलमान कर दिये थे। जब समय पाकर वह उन के पास आए तो उन को पुनः हिन्दु बना लिया। सिंह बनाया और धर्म में मिलाया।
आठवाँ प्रायश्चित -प्रतापमल ज्ञानी ने कराया। यह कार्य भी औरंगजेब बादशाह के समय में हुआ। जबकि एक हिन्दु लड़का मुसलमान हो गया था। उस को शुद्ध कर के वैदिक धर्म में मिलाया।(देखो दबिस्तान मजाहिब शिक्षा 10 पृ.239 सन् 1296 हिजरी नवल किशोर)
नवाँ प्रायश्चित – महाराजा रणजीत सिंह ने कराया। अपने और अपने कई सरदारों के लिए मुसलमानों की लड़कियां लीऔर उनको हिन्दु बनाया।
दसवाँ प्रायश्चित – महाराजा रणवीर सिंह जम्मू कश्मीर ने किया जब कि तीन राजपूत सिपाही लद्दाख में मुसलमान हो गए थे | बड़ी प्रसन्नता पूर्वक तीनों को पुनः हिन्दु धर्म में सम्मिलित किया। जम्मू के विद्वान पण्डितों ने रणवीर प्रकाश एक ग्रन्थ बनाया, जिस की दृष्टि से चालीस पचास वर्ष से मुसलमान हुए लोगों को हिन्दुधर्म में सम्मिलित किया जा सकता है। काशी के पण्डितों ने भी इस से सहमति प्रकट की और व्यवस्था दी। एक बहुत बड़ी पुस्तक प्रत्येक सभा को जम्मु से बिना मूल्य मिल सकती है।
ग्यारहवाँ प्रायश्चित – श्रीमान् स्वामी दयानन्द जी महाराज ने कराया अर्थात काजी मुहम्मद उमर साहिब सहारनपुर निवासी को मुसलमान से आर्य बनाया और वैदिक धर्म पर चलाया।वह अब देहरादून में ठेकेदार है। जिनका नाम अलखधारी है, और वह देहरादून समाज के सदस्य हैं।
बारहवाँ प्रायश्चित – स्वामी जी के परलोक गमन के पश्चात श्रीमती परोपकारिणी सभा ने कराया अर्थात श्री अबदुल अजीज साहिब को जो पंजाब यूनिवर्सिटी की मौलवी कालिज की डिग्री प्राप्त कर चुके हैं और जो अब गुरदासपुर (पंजाब) में असिस्टैंट कमिश्नर हैं [फुट नोट -‍ यह घटना आर्य पथिक की अपने काल की है – अनुवादक] शुद्ध किया और आर्य बनाया जिन का शुभ नाम अब राय बहादुर हरदस राम जी है।
तेरहवाँ प्रायश्चित – सन्त ज्वाला सिंह जी ने कराया जिन्होंने न्यूनातिन्यून चालीस मुसलमानों को वैदिक धर्म में लाकर शुद्ध किया।
चौदहवाँ प्रायश्चित – 14 वर्ष हुए श्री रामजी दास ईसाई ने सात लड़कों को ईसाई बनाया था। कसूर के पण्डितों और महात्मा लोगों ने उनको शुद्ध किया। ब वे लड़के अच्छे 2 पदों पर हैं।
पन्द्रहवाँ प्रायश्चित – आर्य समाज के सदस्यों ने किया अर्थात राजपुताना, पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्तादि में न्यूनातिन्यून दो सहस्त्र मुसलमानों, ईसाईयों और जैनियों को शुद्ध करके वैदिक धर्म में लाकर आर्य बनाया। सन्ध्या, गायत्री सिखा कर प्रायश्चित्त कराया। गौ ब्राह्मण का हितैषी बनाया। अन्धकार से निकलवाया। क्योंकि यह संख्या प्रतिदिन उन्नति पर है। अतः ठीक संख्या बताना कठिन है।
प्रिय भाईयो ! इस विनम्र प्रार्थना को पढ़ कर पांच मिनिट तक हृदय में विचार करो कि यदि आप इसी प्रकार बेसुध रहे तो आप की क्या अवस्था होगी।
आठ सौ वर्ष के अन्दर आप 24 करोड़ से न्यून होते होते 20 करोड़ रह गए।आप गणित विद्या जानते हैं। चार करोड़ हिन्दु आठ सौ वर्षों में मुसलमान हो गए तो 20 करोड़ कितने वर्षों में होंगे ? भाइयो ! अवश्य सम्भलो। आँखें खोल कर देख लो। कुम्भकरण की निद्रा मत सोवो। धर्म नष्ट हो रहा है।
लोग वेद के धर्म को नष्ट कर रहे हैं। लोभ, लालच, धोखे में फंसा कर तुम्हारे बच्चों को म्लेच्छ बना रहे हैं।
केवल यही एक नदी आप के धार्मिक भवन को गिराने वाली नहीं है। एक और नद भी अभी जारी हुआ है। उसका नाम ईसाई धर्म है। दो सौ वर्ष का समय हुआ कि ईसाई पादरियों ने यहां आकर इंजील सुनानी शुरू की। उस समय इस देश में एक भी ईसाई न था। तुम्हारे बहुत से अकाल पीड़ित लोगों को मद्रास और अन्य भिन्न भागों में इन पादरियों ने लोभ देकर ईसाई बना लिया। सामायिक जन गणना से ज्ञात हुआ कि इस समय इसाई बीस लाख हैं।
क्या कभी आपने सोचा कि इस समय तक कितने ईसाई हो चुके हैं ? भाईयो ! परमेश्वर के लिये आँखें खोलो। नींद से जागो।मुख प्रक्षालन करके स्नान करो। अपनी अवस्था सम्भालो। तुम्हारे धर्मरूपी पेड़ को दोनों ओर से दीमक लग रही है। अपने आप को बचा लो। अन्यथा तुम्हारा ठिकाना न मिलेगा। चिह्न तक न रहेगा।
मद्रास आज कल सौभाग्यशाली है। जहां सैंकड़ों घरों ने, जो अकाल के कारण ईसाई हो गये थे, ईसाई धर्म छोड़ दिया है। ब्राह्मणों ने न सहस्त्र व्यक्तियों को वैदिक धर्म में मिला लिया है। ईसाई रो रहे हैं। कुछ बस नहीं चलता। तुम्हें भी चाहिए। दया करो। कृपा करो। अपने भोले भाले बेसमझ बच्चों का जीवन व्यर्थ न गंवाओ। जो शरण आये उसे ठीक कर लो। प्रायश्चित करा के शास्त्रोक्त रीति से शंकर स्वामी की भाँति, बाबा नानक की भाँति, चाणक्य ऋषि की भाँति, महाराजा रणवीर सिंह की भाँति मिला लो। अन्यथा स्मरण रखो कि मुसलमान और ईसाई रह करके वे जितनी हत्यायें करेंगे, उन सब का पाप तुम्हारे गले पर होगा। परोपकारी बनो। जगत् का भला करो। पिछड़े हुए भाईयों को प्रायश्चित से शुद्ध करके मिलाओ।