धरमपाल
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धरमपाल (19 फरवरी 1922 – 24 अक्टूबर 2006) एक गान्धीवादी विचारक, इतिहासकार एवं लेखक थे। उन्होंने 'द ब्युटिफुल ट्री' (वह सुन्दर वृक्ष), 'साइंस ऐण्ड टेक्नॉलोजी इन एटीन्थ सेन्चुरी' (अट्ठारहवीं शताब्दी का विज्ञान और प्रौद्योगिकी), तथा 'सिविल डिसओबिडिएन्स ऐण्ड इंडियन ट्रेडिशन' (नागरिक अवज्ञा और भारतीय परम्परा) आदि प्रमुख पुस्तकों की रचना की है। इन पुस्तकों में उन्होंने ब्रिटिशों द्वारा भारत पर अधिकार के ठीक पहले के भारतीय समाज के सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा तकनीकी उपलब्धियों की गहन व्याख्या की है। उनकी यह व्याख्या परम्परागत समझ के विपरीत एक नवीन और क्रान्तिकारी सोच है।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- स्वतन्त्रता संघर्ष के रीढ़ सिद्ध हुए सामान्य लोगों को उनके खेत और हल, औजारों और वर्कशॉप तक सीमित कर दिया गया। हमने उनको और कठिन काम करने के लिये मजबूर किया, और उनको आस्वासन दिया कि भारत का ध्यान रखने के लिये हम ही काफी हैं। -- 'द स्टेट्समैन' में 24 मार्च, 2000, जिसका शीर्षक था ,“Project That Has Lost Its Purpose”, regarding the outcry over the recall of the Towards Freedom Project.
धरमपाल जी के बारे में उक्तियाँ
[सम्पादन]- ऐसा नहीं है कि कहीं भी कोई सत्य बोल दिया जाय तो झूठ स्वतः ही विलुप्त हो जाता है। धरमपाल की पुस्तक 'द ब्युटिफुल ट्री' इस मिथक को पूरी तरह से ध्वस्त करती है कि ब्राह्मणों ने सारी शिक्षा अपनी जाति के लिये रखी हुई थी और शूद्रों को अंधेरे और अशिक्षा में छोड़ दिया गया था। इसके बावजूद भी यह मिथक (असत्य) आज भी बार बार दोहराया जाता है। इसलिये, सत्य का अन्वेषण करना ही पर्याप्त नहीं है, उस सत्य का चारों ओर प्राअर करना भी आवश्यक है। -- Koenraad Elst, Ayodhya and After: Issues Before Hindu Society (1991)
- एक बार आधुनिक शिक्षा पद्धति से जो गुजर जाते हैं, उनके लिए व्यूह-रचना से बाहर निकल कर खुली दिशाओं को देख पाना भी एक बहुत बड़ा पुरूषार्थ है। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में ऐसा पुरूषार्थ करने वाले गिने-चुने लोग ही हुए हैं। एक ओर तथाकथित नितान्त परम्परावादी लोग आधुनिक सभ्यता अथवा आधुनिक शिक्षा से घबराकर कछुए की तरह अपनी खोल में सिमट कर बाह्य जगत से आँखें मोड़ लेते हैं और पारम्परिक विद्या को वर्तमान संदर्भ तक पहुँचाने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसे लोगों के पास कितनी भी विद्याओं का ज्ञान-भण्डार क्यों न हो, लोग सरलता से उनको पिछड़ेपन या दकियानूसी के रूप में खारिज कर देते हैं। इसलिए आधुनिक शिक्षा से होकर परम्परागत विद्याओं को देखने वालों की विशेषता यह होती है कि वह आधुनिक शिक्षा की सीमाओं को भली प्रकार जानते हुए, परम्परागत विद्याओं की श्रेष्ठता को पहचानते हुए वर्तमान संदर्भ से उसे जोड़कर देख सकते हैं ओर प्रचलित भाषा में उस रहस्य का उद्घाटन भी कर सकते हैं। आचार्य धर्मपालजी ऐसे लोगों में थे जो आधुनिक शिक्षा से भलीभांति शिक्षित होकर परम्परा की ओर मुड़े और उसकी गहराइयों में प्रवेश कर पाए। इस प्रक्रिया में आधुनिक शिक्षा बाधक नहीं, अपितु सहायक बनी। आधुनिकता को जानते हुए पारम्परिक विद्या के दृष्टिकोण से जब जगत को देखते हैं तो वहां पर एक सम्यक् दृष्टि की उत्पति होती है। ऐसे ज्ञाताओं की अग्रिम पंक्ति में थे- श्री धर्मपाल। गांधीजी के विचारों का धर्मपालजी ने केवल अकादमिक अध्ययन ही नहीं किया है, अपितु पूर्णरूप से उन्होंने उस दर्शन को जिया भी है। प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं सामाजिक व्यवस्था के अकाट्य तथ्य एवं साक्ष्य के माध्यम से युक्तिसंगत एवं प्रामाणिक व्याख्या जो धर्मपालजी ने दी है, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। -- सामदोंग रिन्पोछे (प्रसिद्ध चिन्तक एवं बौद्ध दार्शनिक)