दत्तोपन्त ठेंगड़ी

दत्तोपन्त ठेंगडी भारत के एक ज्येष्ठ स्वतंत्रता सेनानी, कुशल संघटक, अनेक राष्ट्र प्रेमी संगठनों के शिल्पकार, विख्यात विचारक, लेखक थे। उन्होंने संतो के समान त्यागी और संयमित जीवन जीया। उन्होंने १९५५ में भारतीय मजदूर संघ, १९७९ में भारतीय किसान संघ तथा १९९१ में स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की।
10 नवंबर 1920 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के आर्वी शहर में जन्मे श्री ठेंगडी एक प्रसिद्ध वकील श्री बाबुराव दाजीबा ठेंगडी के ज्येष्ठ पुत्र थे। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि, और सामाजिक कार्य के प्रति ललक ने उन्हें विद्यार्थी जीवन में ही स्वतंत्रता संग्राम में उतार दिया। केवल 15 वर्ष की आयु में ही वे आर्वी तालुका नगरपालिका हाईस्कूल के अध्यक्ष चुने गए।
भानुप्रताप शुक्ल लिखते है कि (१) रहन–सहन की सरलता, (२) अध्ययन की व्यापकता, (३) चिन्तन की गहराई, (४) लक्ष्य की स्पष्टता (५) ध्येय के प्रति समर्पण, (६) साधना का सातत्य और (७) कार्य की सफलता का विश्वास -- श्री ठेंगड़ी का व्यक्तित्व रूपायित करते हैं।
उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।[१]
उद्धरण
[सम्पादित करें]- मजदूरो, दुनिया को एक करो।
- राष्ट्र का उद्योगिकरण, उद्योगों का श्रमिकीकरण, तथा श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण।
- लाल गुलामी छोड़ कर, बोलो वन्देमातरम् ।
- देश के हम भण्डार भरेंगे, लेकिन कीमत पूरी लेंगे।
- रोज़गार मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है।
- मानवता की मौलिक इकाई राष्ट्र है, वर्ग नहीं।
- संघ कुछ नहीं करेगा लेकिन जो भी जरूरी है वह अंततः होगा।
- नए राष्ट्र का निर्माण नहीं बल्कि राष्ट्र का पुनर्निर्माण ।
- (हिंसक) क्रांति नहीं बल्कियुगानुकूल परिवर्तन ।
- सनातन धर्म के शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित एकात्म मानववाद एक युगानुकूल दृष्टिकोण है। यह राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए बुनियादी राष्ट्रीय दर्शन होना चाहिए और राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारी नीतियां इसके आलोक में तैयार की जानी चाहिए।
- हम यह नहीं मानते कि आधुनिकीकरण का अर्थ पश्चिमीकरण है। अंग्रेजी शिक्षा की मैकाले प्रणाली के माध्यम से एक सदी से अधिक समय से दिमाग धोने की प्रक्रिया के कारण, अधिकांश भारतीयों को यह विश्वास करने की आदत हो गयी है कि पश्चिम की कोई भी चीज़ हमेशा सर्वोत्तम होती है तथा आधुनिक होने के लिए हमारी जीवनशैली और विचार शैली अवश्य ही पश्चिमी होनी चाहिए। हालाँकि यह केवल एक मानसिक नाकाबंदी है। हमें जल्द से जल्द इससे बाहर आना चाहिए और पश्चिमी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें यह स्वीकार करना होगा कि आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण नहीं है और पश्चिमीकरण आधुनिकीकरण नहीं है।
- भारतीय मजदूर संघ सर्वकल्प राष्ट्र निर्माण का एक अंग है और राष्ट्रहित की चौखट के भीतर मजदूर हित की कल्पना साकार करना उसका उद्देश्य है। यह मजदूरों का, मजदूरों के द्वारा, मजदूरों के लिए चलने वाला संगठन है, जो सभी प्रकार के प्रभाव यथा- सरकार का प्रभाव, राजनीतिक दलों का प्रभाव, विदेशी विचारधारा का प्रभाव और व्यक्तित्व, नेतागिरी के प्रभाव से ऊपर उठकर कार्य करेगा। इसके मुख्यतः तीन सूत्र होंगे- राष्ट्रहित, उद्योग हित और मजदूरहित। -- 23 जुलाई, 1955 को तिलक जयन्ती के शुभ दिवस पर भोपाल में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के अवसर पर अपने सम्बोधन में
- स्वदेशी अर्थव्यवस्था के चार लक्षण है- जिसमें हेरफेर नहीं बल्कि मुक्त प्रतिस्पर्धा हो, जहां आंदोलन का लक्ष्य समता और समानता हो, जहां प्रकृति का दोहन किया जाता है लेकिन उसे नष्ट नहीं किया जाता है, और जहां स्व-रोजगार है न कि मजदूरी वाला रोजगार।
- राष्ट्रीय कायाकल्प केवल उन लोगों के माध्यम से संभव है जो भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणाली में दृढ़ता से विश्वास करते हैं।
- पूजनीय श्री गुरूजी का यह आग्रह था कि, केवल इंटक की कार्यपद्धति जानना प्रर्याप्त नहीं है। कम्यूनिस्ट यूनियन्स और सोशलिस्ट यूनियन्स की कार्य पद्धति भी जाननी चाहिये।
- कृषि को, किसान को और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता दिये जाने की आवश्यकता है। आर्थिक समानता का गलत अर्थ प्रचारित कर लोगों में अधिक काम करने की प्रेरणा समाप्त करने वाला ‘महापात्र सिद्धान्त’ हानिकारक है। परिश्रमपूर्वक अधिक उत्पादन निकालने वाले किसानों को अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने का अवसर मिलना चाहिए।
- हर किसान हमारा नेता है।
- सामाजिक समरसता के बिना सामाजिक समता असम्भव है।
- समूचा ज्ञान सार्वभौम है, यह न पाश्चात्य है न पौर्वात्य ।
- हमारा राष्ट्र एक अद्भुत, प्राचीन एवं विशिष्ट राष्ट्र है और वह न केवल राष्ट्र बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए उपयोगी है। हम अपने अतीत की अवहेलना नहीं कर सके हैं पर सदियों के गतिरोधकाल में जो भूल-चूक हुई है, उसे सुधारे, उसे आगे ढोते ना रहे। ऐसा विवेक राष्ट्रीय चिन्तन के लिए आवश्यक है।
- मानव चेतना की प्रगति के मार्ग में राष्ट्रवाद, आदिम जातिवाद और मानववाद के बीच का सेतु हैं और स्वयं मानववाद ही सार्वभौमीकरण (Universalisation) की दिशा में एक बड़ा कदम है।
- कोई भी विचार अगर वास्तव में स्थापित करना है तो उसका व्यावहारिक आचरण करके दिखाना चाहिए ।
- बिना सोचे-विचारे पश्चिमी देशों की नकल करने की बजाए भारत की अपनी मूल्य प्रणाली और सांस्कृतिक लोकाचार का अनुसरण करने से ही राष्ट्रीय पुनर्जागरण और विकास हो सकता है।
- 'वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन' गलत नाम है, यह वास्तव में 'वेस्टर्न वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन' है।
- हमें नहीं लगता कि आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण है। अंग्रेजी शिक्षा की मैकाले प्रणाली के माध्यम से एक शताब्दी से अधिक ब्रेन वॉश के कारण, अधिकांश भारतीयों को यह मानने की आदत है कि पश्चिम की कोई भी चीज हमेशा सबसे अच्छी होती है। आधुनिक होने के लिए हमारी जीवनशैली और विचार शैली अनिवार्य रूप से पश्चिमी होनी चाहिए। हालाँकि यह केवल एक मानसिक नाकाबंदी है। हमें इससे जल्द से जल्द बाहर आना चाहिए और पश्चिमी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि आधुनिकीकरण पश्चिमीकरण नहीं है और पश्चिमीकरण आधुनिकीकरण नहीं है। -- बेंगलुरू में अपने एक व्याख्यान में
- भारतीय मजदूर संघ सर्वकल्प राष्ट्र निर्माण का एक अंग है और राष्ट्रहित की चौखट के भीतर मजदूर हित की कल्पना साकार करना उसका उदेश्य है। यह मजदूरों का, मजदूरों द्वारा, मजदूर के लिए चलने वाला संगठन है, जो सभी प्रकार के प्रभावों यथा सरकार का प्रभाव, नियोजकों का प्रभाव, राजनीतिक दलों का प्रभाव, विदेशी विचारधारा का प्रभाव और व्यक्तिगत नेतागिरी के प्रभाव से ऊपर उठ कर कार्य करेगा। राष्ट्रहित, उद्योगहित व मजदूरहित की त्रिसूत्री इसके विचार चिन्तन की धुरी होगी। -- भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए ‘इदं राष्ट्राय, इदं न मम्’ लेख में
- उन दिनों एक बड़ी समस्या थी कि राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता और भारत माता, इन शब्दों के प्रति तथाकथित प्रगतिशील लोगों के मन में बड़ी चिढ़ थी। हम भारत माता की जय कहते तो प्रगतिशील नेता कहते इस नारे का यहां ट्रेड यूनियन क्षेत्र में क्या प्रयोजन है? यहां तो बोनस, महंगाई भत्ता, वेतन वृद्धि आदि का सवाल है। भारत माता को यहां क्यों घसीट लाते हो। नारे भी अलग लगते थे। उनका नारा था ‘चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो।’ उस नारे के स्थान पर हमने कहा ‘देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम।' यानी राष्ट्रवाद को प्रखरता से लाना और राष्ट्रहित की चौखट में रहकर मजदूरों का हित करना, यह हमारा ध्येय है। हमारी प्राथमिकता का क्रम है कि पहले राष्ट्रहित, फिर मजदूरहित और अंत में भारतीय मजदूर संघ का हित। इसमें कोई संस्थागत अहंकार नहीं। राष्ट्र का कल्याण हो, मजदूरों का कल्याण हो, यह हमारा सिद्धान्त और लक्ष्य है। -- भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के समय की स्थिति को स्पष्ट करते हुए ‘इदं राष्ट्राय, इदं न मम्’ लेख में
- आत्मविकास करना और अपने श्रेष्ठ गुणों का फल राष्ट्रदेवता के श्रीचरणों में अर्पित करके इस धरती से शान्तिपूर्वक निकल जाना, यह आदर्श स्थिति है। अपने महान राष्ट्र की आधारशिला का एक लघु पाषाणकण बन कर नींव में गढ़े रहना ही मैं पसन्द करूंगा।
- हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि स्वदेशी का मतलब हम राष्ट्र तक संकुचित हैं, ऐसा नहीं है। हमारे प.पू. गुरुजी ने कई बार यह कहा कि विश्वशांति के लिए एक विश्व संकल्पना की आवश्यकता है। एक विश्व संकल्पना का अर्थ एक विश्व सरकार, एक विश्व शासन नहीं बल्कि हरेक राष्ट्र अपना-अपना कारोबार ठीक ढंग से चलाए । हरेक राष्ट्र की अपनी संस्कृति है उस संस्कृति के अनुसार हरेक राष्ट्र अपनी-अपनी प्रगति का मॉडल, नमूना बनाए ।
- आज तृतीय विश्व के सभी देशों में वैसे ही स्वदेशी आंदोलन शुरू हुए हैं जैसा जैसा हमारा स्वदेशी जागरण मंच का कार्य है। स्वदेशी की भावना उन सभी देशों में जागृत की जा रही है। जब 'स्वदेशी' कहा जाता है तो उसका संबंध केवल वस्तुओं से नहीं है- स्वदेशी एक भावना है, एक स्पिरिट है । स्वदेशी का मतलब होता है कि हरेक देश अपनी संस्कृति के अनुसार, अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार अपना विकास करे।
दत्तोपन्त ठेंगड़ी के विषय में अन्य लोगों के विचार
[सम्पादित करें]- दत्तोपंत जी ने लगातार 25 घंटे और वर्ष में 13 महीने काम करते हुए उस कार्य को एक ही जन्म में सम्पन्न कर दिया जिसे दस जन्मों में पूरा किया जा सकता था। -- प्रख्यात विचारक एस० गुरुमूर्ति
- ठेंगड़ी जी भविष्यद्रष्टा थे। उन्होंने 1955 में जिस भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की थी, वह संगठन अगले तीन दशक में ही 1979 के आते-आते भारत का सबसे बड़ा मजदूर संगठन बन गया। उस समय भारतीय मजदूर संघ से 31 लाख कर्मचारी जुड़े थे। यह संख्या उस समय सीटू और एआईटीयूसी में शामिल कुल कर्मचारियों की संख्या से भी अधिक थी। आज इस संगठन से 83 लाख मजदूर जुड़े हुए हैं जो कि भारत में काम कर रहे सभी मजदूर संगठनों के कुल सदस्यों की संख्या से भी अधिक है। ठेंगड़ी जी ने वामपंथी न होते हुए भी देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन खड़ा कर दिया। वास्तव में वे हमेशा वामपंथियों का विरोध करते रहे। उन्होंने उनके किले को ध्वस्त किया और उस पर कब्जा किया। ठेंगड़ी जी ने वामपंथियों को उनके ही गढ में मात दी। उन्होंने उनके खिलाफ एक तरह से युद्ध छेड़ दिया। वैचारिक युद्ध। इस युद्ध में ठेंगड़ी जी को विजय मिली। ठेंगड़ी जी ने मजदूर संगठनों को भी वैचारिक आयाम दिया। उन्होंने न तो कभी बंद की मांग की जो आम तौर पर मजदूर संगठनों के प्रमुख हथियार होते हैं, न उन्होंने शहरों की व्यवस्था बिगाड़नें में कोई रुचि दिखाई। ठेंगड़ी जी का संगठन कभी हिंसा से नहीं जुड़ा और न ही उन्होंने अपने संगठन को किसी राजनीतिक पार्टी का पिछलग्गू बनने दिया। -- स्वामिनाथन गुरुमूर्ति
- मजदूर संगठन के नेता होने के बावजूद दूसरों की भांति वे (दत्तोपन्त ठेंगडी) शहरी चकाचौंध में कभी नहीं डूबे। उन्होंने तो कृषि क्षेत्र में भी भारत का सबसे बड़ा संगठन भारतीय किसान संघ खड़ा कर दिया। उन्होंने कभी शहरी बनाम गांव का भी नारा नहीं छेड़ा और न कृषि बनाम उद्योग का कोई विवाद खड़ा किया। उनके लिए तो राष्ट्रवाद ही सबसे बड़ा अस्त्र था और इसी के जरिए वे विभाजित हितों के खिलाफ लड़ते रहे। उन्होंने कभी भी अमीर-गरीब, जाति-भेद या वर्ग-भेद में विश्वास नहीं रखा। वे हमेशा राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय हित के लिए आगे खड़े दिखाई दिए। वे वहां भी राष्ट्रवाद को ही ले गए, जहां वर्ग-भेद का एकाधिकार और वैचारिक उग्रवाद का बोलबाला रहा। नब्बे के दशक की शुराआत में जब वैश्वीकरण ने भारत के सामने गंभीर चुनौती पेश की और असहाय लोग तब आंख बंद कर इसका विरोध या समर्थन कर रहे थे, तब लोगों को उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की याद दिलाई और स्वदेशी आंदोलन का स्वरूप पेश किया। उन्होंने स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना की, जिसने आगे चलकर पूर्णत: भारतीय वैकल्पिक, आर्थिक मॉडल प्रस्तुत किया न कि सिर्फ वैश्वीकरण के विरुद्ध और भारतीयता के अनुकूल है। स्वदेशी जागरण मंच बेलगाम वैश्वीकरण के खिलाफ युद्ध में बहुत प्रमुखता से उभरा और आज भारत को वैश्विक शक्ति बनाने की दृष्टि देने में पूरी तरह सफल हुआ है। आज भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच शक्तिशाली संगठन हैं और अपनी वैचारिक मजबूती के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इन सब के संस्थापक ठेंगड़ी जी अपने प्रचार के प्रति कभी लालायित नहीं हुए। -- स्वामिनाथन गुरुमूर्ति
- ठेंगड़ी जी कौन हैं, शायद बहुतों को मालूम भी नहीं है। उनके द्वारा गठित संगठन आज आगे बढ़ चुके हैं और संभवत: दुनिया के बहुत सारे लोग उनको जानते है। ठेंगड़ी जी का निधन 84 साल की उम्र में हुआ, लेकिन मृत्युपर्यंत वे भरपूर ऊर्जावान बने रहे। अंतिम दिनों मे भी उनके अंदर वही ऊर्जा थी, जो एक 48 साल के व्यक्ति में देखी जा सकती है। उन्होंने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना से लेकर उसे भारत का सबसे बड़ा संगठन बनाने तक में हाडतोड़ मेहनत की, लेकिन कभी भी उन्हें थका हुआ नहीं देखा गया। उनकी बौद्धिक क्षमता का कौन लोहा नहीं मानता था। इतिहास और अर्थशास्त्र पर तो उनकी गहरी पकड़ थी। समाज शास्त्र और राजनीति में भी वे किसी विद्वान से कम नहीं थे। लेकिन वे प्रचार के बिल्कुल भूखे नहीं थे। उन्होंने शायद ही सार्वजनिक रूप से कभी अपने को आगे दिखाने की कोशिश की हो। शायद ही कभी मीडिया में फोटो खिंचवाने या साक्षात्कार देने की हामी भरी हो। कैमरे के सामने तो वे आते ही नहीं थे। वे कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद जोड़ने के पक्षधर थे न कि कैमरे के सामने खड़े होने के। हालांकि वे राजनीति में भी थे। वे दो बार राज्यसभा के सदस्य बने, लेकिन उन्होंने अपने बारे में अपनी धारणा नहीं बदली। वे एक कर्मयोगी थे। उन्होंने इतना काम कर दिया, जितना कोई दस जन्म लेकर करता। लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी बौद्धिक क्षमता पर घमण्ड नहीं किया। उनका ज्यादा समय सोचने-विचारने, पढने और लिखने में निकलता। मूल बौद्धिक विचारों से भरपूर न जाने उन्होंने कितनी किताबें लिखी। उनके द्वारा लिखी लगभग 50 पुस्तकों में उनकी मूल सोच हमेशा परिलक्षित हुई। उन्होंने 27 पुस्तकें हिन्दी में, 12 अंग्रेजी में और 10 मराठी भाषा में लिखी। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में गूढ़ विषयों पर भी उन्होंने न जाने कितने शोध पत्र पेश किए। मराठी और अंग्रेजी के अलावा उन्होंने पांच भाषाएं और सीखी। उन्होंने छोटे-बड़े लगभग सो संगठन बनाने के लिए उत्प्रेरित करने या उस पर विचार देने पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इतनी व्यवस्तता के बाद भी वे साधारण कार्यकर्ताओं के साथ गहन रूप से जुड़े रहे। शायद उन्होंने दिन के 24 के बजाय 25 घंटे और 12 महीने के बजाय 13 महीने का इजाद कर लिया था। -- स्वामिनाथन गुरुमूर्ति
- उनकी मानसिक शारीरिक और बौद्धिक क्षमता अविस्मरणीय थी। एक मानव की ईश्वर प्रदत्त ऊर्जा के अलावा आखिर कौन-सी ऐसी शक्ति थी जो उन्हें इतना उत्प्रेरित करती थी। आखिर वह कौन था, जो उन्हें असंभव कार्यों को भी पूरा करने के लिए झोंक देता था। निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा। संघ, जिसे कई लोगों ने समझने में भूल की, कई लोगों ने जिसके खिलाफ विषवमन किया, वह संगठन एक ऐसा मुक्त विश्वविद्यालय है, जहां से देश को अनगिनत राष्ट्रभक्त और बौद्धिकदक्ष व्यक्ति मिले। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। ठेंगड़ी जी 21 साल की उम्र में ही संघ के प्रचारक बन गए और अंतिम सांस तक प्रचारक बने रहे। कोई भी पद या पदवी उन्हें आकर्षित नहीं कर पाई। वे चाहते तो सार्वजनिक जीवन में उन्हें कोई भी बड़े से बड़ा पद मिल सकता था। लेकिन उनके जैसे व्यक्ति के लिए किसी पद की क्या गरिमा।
- ठेंगड़ी जी भविष्यदृष्टा और संत थे। उन्होंने दशकों पहले यह कल्पना कर ली थी कि एक न एक दिन मानवीय प्रकृति के खिलाफ खड़े वामपंथ का अंत हो जाएगा और ऐसा ही हुआ। यहां तक कि वैश्वीकरण के बढते प्रभाव से भी ठेंगड़ी जी विचलित नहीं हुए। उन्होंने डेढ़-दो दशक पहले ही यह दर्शन दिया था कि राष्ट्रों के बीच हित टकराव ही वैश्वीकरण के खिलाफ माहौल तैयार कर देगा। न सिर्फ भारत में, बल्कि इस समय पूरी दुनिया में वैश्वीकरण के खिलाफ अभियान चल रहा है और राष्ट्रीय हित के कारण सर्वत्र स्वदेशी आंदोलन तेजी पकड़ रहा है। सभी राष्ट्र अपने हितों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
- ठेंगड़ी जी बाबा साहब अंबेडकर और उनके विचार को भली-भांति समझते थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा भी- गुरुमूर्ति, बाबा साहब अंबेडकर के बारे में अरुण शौरी ने जो निष्कर्ष निकाला है, उससे मैं सहमत नहीं हूँ। मैंने तर्क दिया- ठेंगड़ी जी! अरुण शौरी की किताब साक्ष्यों और दस्तावेजों पर आधारित है। ठेंगड़ी जी ने उतर दिया कि क्या तुम्हें लगता है कि विकट परिस्थितियों से जूझ रही महान आत्माओं के बारे में निष्कर्ष साध्यों और दस्तावेजों के आधार पर निकाला जा सकता है। उन्होंने कहा कि उस समय बाबा (ठेंगड़ी जी बाबा साहब अंबेडकर को इसी नाम से पुकारते थे) के सामने जो परिस्थितयां थी और जो चुनौतियां थीं, उसे दस्तावेजों या साक्ष्यों में नहीं पढा जा सकता। अधिकांश दस्तावेज गलत तथ्यों पर बढ़ा-चढ़ा कर या कुछ छिपाकर प्रस्तुत किए जाते हैं, उनमें पूरी तरह सच्चाई नहीं होती। इसलिए रिकॉर्ड्स के आधार पर बाबा साहब अंबेडकर के चुनौतीपूर्ण जीवन के बारे में कोई सही आंकलन नहीं कर सकता। वास्तव में ठेंगड़ी जी ही बाबा साहब अंबेडकर के बारे में अधिकारपूर्ण तरीके से कोई आंकलन कर सकते हैं, क्योंकि बाबा साहब के जीवन के अंतिम चार वर्ष ठेंगड़ी जी ही उनके सबसे समीप रहे। ठेंगड़ी जी ने उसके आगे जो कुछ भी कहा, वह मुझे अचंभित करने के लिए काफी था। उन्होंने कहा- मैं बाबा साहब की समस्याओं और उनकी चिंता का साक्षात गवाह था। उन्होंने याद किया- बाबा साहब चाहते थे कि हिन्दू साधुसंत और धार्मिक प्रमुख यह सार्वजनिक घोषणा करें कि अस्पृश्यता का हिन्दू धर्म में या उसके ग्रंथों में कोई आधार नहीं है। संघ ने इस दिशा में कोशिश की लेकिन उसकी कोशिश कोई फल नहीं ला सकी। लेकिन बाबा साहब ने 1954 में उस समय जब वह बहुत बीमार रहने लगे थे तब ठेंगड़ी जी से कहा था कि मेरे हाथ से समय निकलता जा रहा है। मुझे अस्पृश्यता हटाने के संघ के प्रयास पर पूरा भरोसा है। लेकिन यह प्रयास बहुत धीमा है। मैं बहुत इंतजार नहीं कर सकता, क्योंकि अपने जीवन रहते शायद इस समस्या का समाधान नहीं देख पाऊंगा। ठेंगड़ी जी ने मुझे बाबा साहब अंबेडकर के बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने के प्रकरण को भी बताया। ठेंगड़ी जी ने याद करते हुए कहा, बाबा साहब के ही शब्द थे कि अगर मैंने इस समुदाय को कोई रास्ता नहीं दिखाया तो ईसाई चर्च और वामपंथ इनको खा जाएंगे। बाबा साहब संघ के माध्यम से जो 1954 में कराना चाहते थे, वह संघ 1965 में कर पाया। उडुपी में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित सम्मेलन, जिसमें मैं भी शामिल था, में हिन्दू धार्मिक प्रमुखों ने अस्पृश्यता को समाप्त करने की घोषणा की थी। ठेंगड़ी जी की बातों को सुनकर मेरे जैसे कई लोगों ने उन्हे उत्प्रेरित किया कि बाबा साहब अंबेडकर के साथ गुजारे दिनों को याद करते हुए वे एक पुस्तक लिखें। ठेंगड़ी जी ने स्वर्ग प्रस्थान के कुछ दिन पहले ही यह पुस्तक पूरी की। बाबा साहब पर लिखी उनकी पुस्तक का विमोचन भी हुआ।
- ठेंगड़ी जी ने इस संसार से कुछ भी नहीं लिया। यहां तक कि न तो उनके पास कोई मकान था, न कार, न सेल्युर फोन और न कुछ और। वे दिल्ली में भी भारतीय मजदूर संघ की व्यवस्था के भीतर एक छोटे कमरे में रहे। उनकी आवश्यकता बेहद सीमित थी, उन्हें कुछ धोती, कुछ कुर्ते और उसको रखने के लिए सूटकेस की दरकार थी। वे यात्रा भी या अधिकतया तो बस में करते थे या द्वितीय श्रेणी के रेल डिबे में। उन्होंने शादी के बारे में कभी विचार ही नहीं किया, क्योंकि उनका सारा समय दूसरों की भलाई में गया। वह एक ऋषि और तपस्वी थे। अखबारों में भी वे कम ही आना पसंद करते थे। समाचार पत्रों, जो अपने लाखों टन कागज वस्त्रहीन फिल्म सितारों की तस्वीरें छापने में जाया करते है, ने भी ठेंगड़ी के जीवन और उनके महान कार्यों के बारे में लिखने की जरूरत ही नहीं समझी, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनको बहुत नजदीक से जानने, उनके करीबी रहने और दूसरों से सुनने-समझने के बाद मैं इतना ही कह सकता हूँ कि दुनिया को जानना चाहिए कि एक महान तपस्वी 14 अक्तूबर, 2004 को एक बहुत बड़ा शून्य छोड़ कर इस धरती से प्रस्थान कर गया।[२] -- स्वामिनाथन गुरुमूर्ति