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क्षेमेन्द्र

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क्षेमेन्द्र ११वीं शताब्दी के संस्कृत के महान कवि हैं।

उक्तियाँ

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  • सदा खण्डनयोग्याय तुषपूर्णाशयाय च।
नमोऽस्तु बहुबीजाय खलायोलूखलाय च॥ --देशोपदेश 1/5
दुर्जन सदा खण्डन में कुशल, बहुत से दोषों एवं व्यर्थ की बातों से भरे हुए ओखली रूपी खल को नमस्कार है।
  • खलेन धनमत्तेन नीचेन प्रभविष्णुना।
पिशुनेन पदस्थेन हा प्रजे क्व गमिष्यसि॥ -- देशोपदेश 1/7
  • अहो बत खलः पुण्यैुर्मुर्खोऽप्युरतपण्डितः।
स्वगुणोदीरणे शेषः परनिन्दासु वाक्पतिः॥ --देशोपदेश 1/9
दुर्जन व्यक्ति मूर्ख होकर भी विद्वान होता है क्योंकि वह अपने गुणों का वर्णन करने में शेषनाग के समान तथा दूसरों की निन्दा करने में बृहस्पति के समान होता है।
  • मायामयः प्रकृत्यैव रागद्वेषमदाकुलः।
महतामपि मोहाय संसार इव दुर्जनः॥ -- देशोपदेश 1/12
दुर्जुन स्वभाव से ही मायामय, रागद्वेष और मद से भरा हुआ, बड़े व्यक्तियों को भी भुलावे में डालने वाला है।

वेश्याएँ

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  • नीचापभोग्यविभवा, सदाचारपराङ्मुखी।
दुर्जनश्रीरिव चला, वेश्या व्यसनकारिणी॥ -- देशोपदेश 3/3
वेश्याएँ नीचों की सम्पत्ति का भोग करने वाली, सदाचार से विरत, दुर्जन को दुःख देने वालीं, लक्ष्मी कर तरह चंचल एवं व्यसनकारिणी होती हैं।
  • अति वर्षशतं स्थित्वा सदा कृत्रिमरागिणी।
वेश्या शुकीव निःश्वासा निःसंगेभ्यः पलायते॥ -- देशोपदेश 3/9
सौ वर्ष तक साथ रहने पर भी वेश्या का प्रेम कृत्रिम होता है। साथ छूटते ही शुक (तोते) की तरह शीघ्र भाग जाती है।
  • कृत्रिमं दृश्यते सर्वं चित्तसद्भाववर्जिता।
सूत्रप्रोतेव चपला नर्तकी यन्त्रपुत्रिका॥ -- देशोपदेश 3/11
वेश्याओं द्वारा दिखाये गये हाव-भाव, प्रेम-व्यवहार व स्नेह आदि सभी कृत्रिम हुआ करते हैं।

विद्यार्थी

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  • नमश्छात्राय सततं सत्रे वामार्धहारिणे।
उग्राय विषभक्षाय शिवाय निशिशूलिने॥ -- देशोपदेश 6/1
शिव के समान विद्यालय में सदा बायीं ओर स्त्री को बैठाने वाले, क्रोधी, विषैले, उग्रविष भोगी तथा तीखा त्रिशूल धारण करने वाले छात्र को नमस्कार है।
  • न ब्रह्मचारी न गृही न वानस्थो न वा यतिः।
  • पञ्चमः पञ्चभद्राख्यश्छात्राणामयमाश्रमः॥ -- देशोपदेश 6/32
ये छात्र न ब्रह्मचारी हैं, न गृहस्थ हैं, न वानप्रस्थी हैं, और न संन्यासी हैं। ये पाँचवें प्रकार के छात्रों का आश्रम के हैं जिन्हें पञ्चभद्र कहते हैं।

संन्यासी

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  • सरागकाषायकषायचित्तं शीलांशुकत्यागदिगम्बरं वा।
लौ ल्योभ्दवभ्दस्मभरप्रहासं व्रतं न वेषोभ्दटतुल्यवृत्तम्॥ -- नर्ममाला 7/13
क्षेमेन्द्र ने संन्यासियों पर भी तीखा व्यंग्य करते हुए उनके कपटपूर्ण बाह्य मिथ्या वेशों को निरर्थक बताया है। इनके सम्बन्ध में विचार कर क्षेमेन्द्र पाते हैं कि उन्होंने जिस वस्तु का त्याग किया है वह केवल उनके मुड़े हुए सिरों के केशमात्र ही है, वासना का त्याग नहीं। ये धूल के रंग के पीले परिधान धारण करते हैं जो इनके हृदय के कालुष्य का प्रतीक हैं।

कायस्थ

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येनेदं स्वेच्छया सर्वं मायया मोहितं जगत्।
स जयत्यजितः श्रीमान् कायस्थः परमेश्वरः॥ -- नर्ममाला 1/1
जिसने इस सारे संसार को अपनी इच्छा से माया का उपयोग करके मोह लिया है, उस अजित श्रीमान् कायस्थ की जय हो। (क्षेमेन्द्र ने तात्कालिक समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार में लिप्त तथा कलम (लेखनी) की नोंक से लोगों के धन का शोषण करने वाले तथा अपनी माया से समस्त संसार को मोह लेने वाले अजित कायस्थ को व्यंग्य रूप में परमेश्वर कहा है।)
  • सेवाकाले बहुमुखैर्लुब्धकैर्बहुबाहुभिः।
वञ्चने बहुमायैश्च बहुरूपैः सुरारिभिः॥ -- नर्ममाला 1/23
(कायस्थ) सेवा काल में विभिन्न बातों के द्वारा लोगों को लुभाने तथा ठगने में बहुरूपों वाला है। वह बहुमुख, बहुबाहु, बहुमाया और बहुरूप है।

ज्योतिषी

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  • ज्योतिःशास्त्रविदे तस्मै नमोऽस्तु ज्ञानचक्षुसे।
वर्ष पृच्छत्यवर्षं वा धीवरान् यो विनष्टधीः ॥ -- क्षेमेन्द्र, नर्ममाला 2/82
ज्योतिःशास्त्रविद को नमस्कार है जो ज्ञानचक्षु है लेकिन वह विनष्ट बुद्धि वाला मछुवारे से पूछता है कि इस वर्ष वर्षा होगी या नहीं।
  • गणिकागणकौ समानधर्मौ निजपञ्चाङ्गनिदर्शकावुभौ।
जनमानसमोहकारिणौ तौ विधिना वित्तहरौ विनिर्मितौ॥
गणिका (वेश्या) और गणक (ज्योतिषी) का बर्ताव एक ही सा जान पड़ता है। ज्योतिषी अपना पंचांग (पत्रा) दिखाता है और वेश्या भी अपने पंचांग (पाँच अंग) दिखाती है। इसी प्रकार ये दोनों, लोगों के मन मोहने वाले हैं। कदाचित् ऐसा ही समझकर विधि ने इन दोनों को लोगों का द्रव्य अपहरण करने के लिए निर्माण किया है।
  • आयुःप्रश्ने दीर्घमायुर्वाच्यं मौहूर्तिकैर्जनैः ।
जीवन्तो बहुमन्यन्ते मृताः प्रक्ष्यन्ति कं पुनः॥
भविष्य बताने वालों को चाहिये कि जब कोई अपनी आयु के बारे में पूछे तो कहना चाहिये कि 'दीर्घ आयु वाले हो'। वह जीवित रहेगा तो आपको बहुत मानेगा, जो मर गया वह पुनः किससे पूछेगा?
  • इति साधारण ज्ञानमन्त्रवैद्यकमिश्रितम् ।
ज्योतिःशास्त्रं विगणयन् यो मुष्णाति जडाशयान् ॥ -- नर्ममाला 2/87
  • प्रानियोगिवधूवृत्तं जानन्नपि जनश्रुतम् ।
धूर्तो धूलिपटे चक्रे राशिचक्रं मुधैव सः ॥ -- क्षेमेन्द्र, नर्ममाला 2 / 88
  • ततोऽवदन् मन्दमन्दं प्रोक्षिप्तभ्रूलतो मुहुः ।
इयमापाण्डुरमुखी रतिकामेन पीडिता॥ -- क्षेमेन्द्र, नर्ममाला 2/90
  • दुर्निवारश्च नारीणां पिशाचो रतिरागकृत् ।
पुनः शून्यगृहे स्नाता गुह्यकेन निरम्बरा ।
गृहीतेत्यत्र पश्यामि चक्रे शुक्रसमागमात् ॥ -- नर्ममाला 2/91
इसमें क्षेमेन्द्र ने ऐसे ज्योतिषियों पर व्यंग्य किया है जो स्त्रियों को भूत-पिशाच आदि से ग्रस्त बतलाकर उन्हें नग्नादि अवस्था में करके पिशाच मुक्त करने का उपाय बताते हैं।
  • विन्यासस्य राशिचक्रं ग्रहचिन्तां नाटयन् मुखविकारैः।
अनुवदति चिराद् गणको यत् किंचित् प्राश्निकेनोक्तम् ॥ -- कलाविलास 9/5
  • गणयति गगने गणकश्चन्द्रेण समागमं विशाखायाः।
विविधभुजङ्गक्रीडासक्तां गृहिणीं न जानाति॥ -- कलाविलास 9/6
गणक (ज्योतिषी) इस बात की गणना करता है कि गगन में चन्द्रमा के साथ विशाखा का समागम कब होगा। (किन्तु) वह नहीं जानता कि उसकी घर वाली विविध भुजंगों (सापों) के साथ क्रीडासक्त है।
  • अहो कालसमुद्रस्य न लक्ष्यन्तेऽतिसंतताः।
मज्जन्तोन्तरनन्तस्य युगान्ताः पर्वता इव॥
काल के महासमुद्र में कहीं संकोच जैसा अन्तराल नहीं, महाकाय पर्वतों की तरह बड़े-बड़े युग उसमें समाहित हो जाते हैं।

सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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