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कारण

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कारण या हेतु।

सूक्तियाँ

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  • हेतुलिङ्गौषधज्ञानं स्वस्थातुरपरायणम्।
त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यं बुबुधे यं पितामहः॥ -- चरकसंहिता, सूत्रस्थान
हेतु (कारण), लिंग (लक्षण) और औषधि का ज्ञान - यह शाश्वत पुण्य त्रिसूत्र (तीन सूत्र) स्वस्थ एवं अस्वस्थ दोनों के लिये है जिसे पितामह (ब्रह्मा) ने कहा है। (आयुर्वेद में कुल तीन प्रकार के सूत्र हैं।)
  • रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता ।
रोगा दुःखस्य दातारो ज्वरप्रभृतयो हि ते ॥ -- भावप्रकाश-पूर्वखण्ड-मिश्रप्रकरण
यह आयुर्वेद का आधारभूत नियम है, त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) का साम्यावस्था मे रहना आरोग्य है, और विषम होना ही रोग का कारण है। रोग, दुख देते हैं। ज्वरादि रोग हैं।
  • कालार्थकर्मणां योगो हीनमिथ्यातिमात्रकः।
सम्यग्गोगश्च विज्ञेयो रोगारोग्यैककारणम्॥ -- वाग्भटसंहिता, सूत्रस्थान -19
काल, अर्थ, और कर्म का हीनयोग, मिथ्या योग, अतियोग ही रोग का और सम्यक योग आरोग्य का एकमात्र कारण है।
  • हेतुर्नास्ति फलं नास्ति नास्ति कर्म स्वभावतः।
असद्भूतमिदं सर्वं नास्ति लोको न लौकिकः॥ -- देवीकालोत्तरागमः
कोई कारण नहीं, कोई फल (प्रभाव) नहीं, स्वभाव से कोई कर्म नहीं है। ये सब असत् से उत्पन्न हुए हैं। न लोक है न कुछ लौकिक है।
  • असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् ।
शक्तस्यशक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥ -- ईश्वरकृष्ण, सांख्यकारिका में
असदकरण से (असदकारणात् = असत् + अकरणात् ) , उपादानग्रहण से ( उपादानग्रहणात् ), सर्वसम्भवाभाव से ( सर्वसम्भवाभावात् = सर्वसम्भव अभावात्) , शक्त के शक्यकरण से (शक्तस्य शक्यकरणात् ), कारणभाव से (कारणभावात् ) -- कार्य ‘सत्’ है, अर्थात् कार्य अपने कारण में सदा विद्यमान है।
असदकरण : जिसका अस्तित्व नहीं है, उसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
उपादानग्रहण : कुछ उत्पन्न करने के लिये सही उपादान (material) होना चाहिये।
सर्वसम्भवाभाव : किसी वस्तु से सब कुछ उत्पन्न नहीं किया जा सकता। बालू से तेल न्हीं निकाला जा सकता।
शक्तस्य शक्यकरण : कारण केवल वही कर सकता है जो उसकी कर सकने की सीमा में हो।
कारणभाव : कार्य की प्रकृति, कारण जैसी होती है।[2]
  • नासतो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सतः । -- गीता
असत् का भाव नहीं होता और सत् का अभाव नहीं होता।
(बालू में तेल असत् है अतः किसी भी प्रयास से बालू से तेल प्राप्त नहीं हो सकता। तेल तिल को पेर कर ही निकाला जा सकता है। इसी प्रकार हज़ारों कारीगर मिलकर भी आकाश में महल नहीं बना सकते। इसका यही तात्पर्य है कि यदि कारण में कार्य का अभाव है तो कारण से कभी भी कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है। अर्थात किसी कारण से ही उससे संबंधित कार्य इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि वह उसमें अपनी उत्पत्ति के पूर्व अव्यक्त रूप में विद्यमान् रहता है।)
  • असत्वे नास्ति सम्बन्धः कारणैः सत्वसङ्गिभिः ।
असम्बद्धस्य चोत्पत्तिमिच्छतो न व्यवस्थितिः ॥
कारण से असम्बद्ध कार्य की उत्पत्ति मानने पर तन्तु से ही पट उत्पन्न होता है। कपाल से नहीं । क्यों ? इसका कोई उत्तर ( व्यवस्था ) नहीं रह जायगा ।
  • कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो मा भूद्राजा कालस्य कारणम्॥ -- महाभारत, शांति पर्व
भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा, राजा, काल को बनाता है या काल, राजा को बनाता है- इसमें तुम कभी संशय मत करना। राजा ही काल का कारण है।
  • लोभात् क्रोधः प्रभवति लोभात् कामः प्रजायते ।
लोभो मोहश्च नाशाय लोभः पापस्य कारणम्॥ -- हितोपदेश
लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है और लोभ से वासना उत्पन्न होती है। लोभ और मोह विनाश को जन्म देते हैं। लोभ पाप का कारण है।
  • मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम्॥ -- अमृतबिन्दुपनिषद्,६/३४)
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष की प्रमुख कारण है। इन्द्रियविषयों में आसक्त मन बंधन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मुक्ति का कारण है।
  • कार्योपादकत्वं कारणत्वम् । -- सप्तपदार्थि []
producing or manifesting nature is the कारणत्व .
  • कार्यस्य नियति पूर्व वृत्ति कारणम् । -- तर्कसंग्रह
inevitable existence prior to कार्य is कारण .
  • वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ॥-- कबीरदास
वृक्ष कभी अपना फल स्वंय नहीं खाते और नदी स्वंय के नीर का संचय नहीं करती। साधु लोग परमार्थ के लिये जन्म लेते हैं।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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