उपनिषद

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उपनिषद संस्कृत में रचित हिन्दू धर्मग्रंथों का एक विशेष वर्ग है। इनकी रचना वे ईसापूर्व ९वीं और ६ठी शताब्दी के बीच हुई थी।

सुभाषित[सम्पादन]

  • सत्यमेव जयते । -- मुण्डक उपनिषद्
अर्थ : सत्य की ही विजय होती है।
  • तत्त्वमसि (= तत् त्वम् असि) -- छान्दोग्य उपनिषद्
अर्थ : तुम 'वह' हो (अर्थात तुम भी ब्रह्म हो।)
  • अहम् ब्रह्मास्मि -- वृहदारण्यक उपनिषद्
अर्थ : मैं ही ब्रह्म हूँ
  • अयमात्मा ब्रह्म -- माण्डुक्य उपनिषद्
अर्थ : यह आत्मा ही ब्रह्म है।
  • प्रज्ञानं ब्रह्म -- ऐतरेय उपनिषद्
अर्थ : प्रज्ञा ही ब्रह्म है।
  • सर्वं खल्विदं ब्रह्म -- छान्दोग्य उपनिषद्
अर्थ : सब ब्रह्म ही है।
  • स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयः प्राणमयश्चक्षुर्मयः श्रोत्रमयः पृथिवीमय आपोमयो वायुमय आकाशमयस्तेजोमयोऽतेजोमयः काममयोऽकाममयः क्रोधमयोऽक्रोधमयो धर्ममयोऽधर्ममयः सर्वमयस् श्रोत्रमयस् आकाशमयस् वायुमयस् तेजोमयस् आपोमयस् पृथिवीमयस् क्रोधमयस् अक्रोधमयस् हर्षमयस् अहर्षमयस् श्रोत्रमयस् पृथिवीमयस् आपोमयस् वायुमयस् आकाशमयस् तेजोमयस् अतेजोमयस् काममयस् अकाममयस् क्रोधमयस् अक्रोधमयस् धर्ममयस् अधर्ममयस् सर्वमयः तद्यदेतदिदम्मयोऽदोमय इति यथाकारी यथाचारी तथा भवति । साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन । अथो खल्वाहुः काममय एवायं पुरुष इति स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते ॥ ५ ॥ -- बृहदारण्यक उपनिषद, अध्याय 4, ब्राह्मण 4, मंत्र 5
वह यह आत्मा ब्रह्म है। वह विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय, चक्षुर्मय, श्रोत्रमय, पृथ्वीमय, जलमय, वायुमय, आकाशमय, तेजोमय, अतेजोमय, काममय, अकाममय, क्रोधमय, अक्रोधमय, धर्ममय, अधर्ममय और सर्वमय है। जो कुछ इदंमय और अदोमय है, वह वही है। वह जैसा करने वाला और जैसे आचरणवाला है, वैसा ही हो जाता है। शुभकर्म करने वाला शुभ होता है और पापकर्म से पापी होता है। कोई-कोई कहते हैं कि वह पुरुष काममय ही है, वह जैसी कामनावाला होता है (जैसी इच्छा करता है) वैसा ही संकल्प (या श्रम) करता है, जैसा संकल्पवाला होता है, वैसा ही कर्म करता है और जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है।
  • एतेषां लक्षणं वक्ष्ये शृणु गौतम सादरम् ।
सुस्निग्धमधुराहारश्चतुर्थांशविवर्जितः ॥ -- योगकुण्डल्युपनिषद्
हे गौतम! अब तुम्हें इनका (मिताहार का ) लक्षण कहता हूँ, सादर (ध्यानपूर्वक) सुनो। सबसे पहले साधक को चाहिए कि वह स्निग्ध एवं मधुर भोजन (आधा पेट) करे, (उसका आधा भाग पानी) एवं चौथाई भाग (हवा के लिए) खाली रखे। इस तरह से शिव (कल्याण) के निमित्त भोजन करने को मिताहार कहते हैं। (प्राणजय के लिए प्रमुख) आसन दो कहे गये हैं — पहला है पद्मासन, दूसरा है वज्रासन ॥
  • विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥ -- (ईशोपनिषद्, मंत्र ११)
अर्थ : जो विद्या और अविद्या दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।
  • हेतुद्वयं हि चित्तस्य वासना च समीरणः ।
तयोर्विनष्ट एकस्मिस्तद्वावपि विनश्यतः ॥
चित्त (की चंचलता) के दो कारण हैं, वासना अर्थात् पूर्वार्जित संस्कार एवं वायु अर्थात् प्राण; इन दोनों में से एक का भी निरोध हो जाने पर दोनों समाप्त (निरुद्ध) हो जाते हैं॥
  • यदग्रे वेदशास्त्राणि तुलसीं तां नमाम्यहम्।
तुलसि श्रीसखि शुभे पापहारिणि ‘पुण्यदे ॥
जिसके मूल में सभी देवता, सिद्ध, चारण, नाग एवं तीर्थ चारों तरफ से स्थित हैं तथा जिसके मध्य में ब्रह्म देवता निवास करते हैं। जिनके अग्रभाग में वेद शास्त्रों का निवास है। उन तुलसी को मैं नमस्कार करता हूँ। हे तुलसी ! तुम लक्ष्मी की सहेली, कल्याणप्रद, पापों का हरण करने वाली तथा पुण्यदात्री हो। ब्रह्म के आनन्द रूपी आँसुओं से उत्पन्न होने वाली तुलसी तुम वृन्दावन में निवास करने वाली हो । नारद के द्वारा स्तुत्य आपको नमस्कार है, नारायण भगवान् के मन को प्रिय लगने वाली आपको नमस्कार है ।
  • कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥
इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता।
  • हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य मुखम् अपिहितम् अस्ति।
पूषन् तत् सत्यधर्माय दृष्टये त्वम् अपावृणु ॥
सत्य का मुख चमकीले सुनहरे ढक्कन से ढका है; हे पोषक सूर्यदेव! सत्य के विधान की उपलब्धि के लिए, साक्षात् दर्शन के लिए तू वह ढक्कन अवश्य हटा दे।
  • शेवधिः अनित्यं इति अहं जानामि हि धृवम् हि तत् अधृवैः न हि प्राप्यते।
ततः मया अनित्यैः द्रव्यैः नचिकेतः अग्निः चितः तेन नित्यं प्राप्तवान् अस्मि ॥
”मैं धनकोष के विषय मे जानता हूँ कि वह अनित्य है; अनित्य (अध्रुव) पदार्थो से उस ‘तत्त्व’ की प्राप्ति नहीं होती जो नित्य (ध्रुव) है। इसलिए मैंने नचिकेता- अग्नि को संचित किया है तथा अनित्य पदार्थों की हवि देकर ‘नित्य’ तत्त्व को प्राप्त किया है।”
  • तत् एकम् अनेजत् मनसः जवीयः देवाः एनत् न आप्नुवन् यस्मात् पूर्वं अर्षत्।
तत् तिष्ठत् धावतः अन्यान् अत्येति। तस्मिन् सति मातरिश्वा अपः दधाति ॥
वह अचल, अचलायमान एकमेव ब्रह्म मन से वेगवत्तर, अत्यधिक वेगवाला है। उस एकमेव तक देवता नहीं पहुँच पाते, क्योंकि वह सदैव उनसे आगे-आगे पहुँच जाता है पहुँचा होता है। वह ठहरा हुआ भी दौड़ते हुए दूसरों को पार कर आगे निकल जाता है। उस तत् में जीवन-शक्ति का स्वामी वायु जलधाराओं को स्थापित करता है।
  • तपः दमः कर्म इति तस्यै प्रतिष्ठा।
वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यम् आयतनम् ॥
तप, आत्म-विजय (दम) तथा कर्म इस अन्तरज्ञान के आधार (प्रतिष्ठा) हैं, ‘वेद’ इसके सब अंग हैं, सत्य इसका धाम है।
  • ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥
इस वैश्व गति में, इस अत्यन्त गतिशील समष्टि-जगत् में जो भी यह दृश्यमान गतिशील, वैयक्तिक जगत् है-यह सबका सब ईश्वर के आवास के लिए है। इस सबके त्याग द्वारा तुझे इसका उपभोग करना चाहिये; किसी भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर ललचाई दृष्टि मत डाल।
  • वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम्‌।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ॥
वस्तुओं का प्राण, वायु, अमर जीवनतत्त्व है, परन्तु इस का अन्त है भस्म। ओ३म। हे दिव्य संकल्पशक्ति! स्मरण कर, जो किया था उसे स्मरण कर! हे दिव्य संकल्पशक्ति, स्मरण कर, किये हुए कर्म का स्मरण कर।
  • नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌ ॥
”जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र (समाहित) नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह ‘आत्मा’ प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।
  • वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद । धर्म चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । -- तैत्तिरीय उपनिषद १ । ११ । १
वेद का भलीभाँति अध्ययन कराकर आचार्य अपने आश्रम में रहनेवाले ब्रह्मचारी विद्यार्थी को शिक्षा देते हैं। तुम सत्य बोलो । धर्मका आचरण करो । स्वाध्यायसे कभी न चूको । आचार्यके लिये दक्षिणाके रूपमें वाञ्छित धन लाकर दो, फिर उनकी आज्ञासे गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करके संतानपरम्पराको चालू रक्खो, उसका उच्छेद न करना । तुमको सत्यसे कभी नहीं डिगना चाहिये । धर्मसे नहीं डिगना चाहिये। शुभ कर्मोंसे कभी नहीं चूकना चाहिये । उन्नतिके साधनोंसे कभी नहीं चूकना चाहिये । वेदोंके पढ़ने और पढ़ानेमें कभी भूल नहीं करनी चाहिये । देवकार्यसे और पितृकार्यसे कभी नहीं चूकना चाहिये।
  • मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव। यान्यनवानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माक सुचरितानि । तानि स्वयोपास्यानि नो इतराणि । ये के चास्मच्छ्रेया५सो ब्राह्मणाः तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम् । श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयादेयम् । श्रिया देयम् । ह्रिया देयम् । भिया देयम् । संविदा देयम्। -- तैत्तिरीय उपनिषद १ । ११ । २
तुम मातामें देवबुद्धि करनेवाले बनो । पिताको देवरूप समझनेवाले होओ । आचार्यको देवरूप समझनेवाले बनो । अतिथिको देवतुल्य समझने वाले होओ। जो-जो निर्दोष कर्म हैं, उन्हींका तुम्हें सेवन करना चाहिये । दूसरे दोषयुक्त कर्मोंका कभी आचरण नहीं करना चाहिये । हमारे आचरणों से भी जो-जो अच्छे आचरण हैं, उनका ही तुमको सेवन करना चाहिये । दूसरेका कभी नहीं । जो कोई भी हमसे श्रेष्ठ गुरुजन एवं ब्राह्मण आयें, उनको तुम्हें आसन-दान आदिके द्वारा सेवा करके विश्राम देना चाहिये । श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिये। बिना श्रद्धाके नहीं देना चाहिये । आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये । लज्जा से देना चाहिये । भय से भी देना चाहिये और जो कुछ भी दिया जाय, वह सब विवेकपूर्वक देना चाहिये।
  • सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति। -- तैत्तिरीय उपनिषद २। १ । २
ब्रह्म सत्य, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है । जो मनुष्य परम विशुद्ध आकाशमें रहते हुए भी प्राणियोंके हृदयरूप गुफामें छिपे हुए उस ब्रह्मको जानता है, वह उस विज्ञानस्वरूप ब्रह्मके साथ समस्त भोगोंका अनुभव करता है । इस प्रकार यह ऋचा है।
  • यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चनेति। -- तैत्तिरीय उपनिषद २।९।१
मन के सहित वाणी आदि समस्त इन्द्रियाँ जहाँ से उसे न पाकर लौट आती हैं, उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला महापुरुष किसी से भी भय नहीं करता ।

उपनिषदों के बारे में उक्तियाँ[सम्पादन]

  • उपनिषदों में हमें खोखले और बेकार कर्मकांडी धर्म की आलोचना मिलती है। यज्ञों का स्थान गौण हो जाता है। उनसे अंतिम मुक्ति नहीं मिलती। वे व्यक्ति को पितरों के लोक में ले जाती है, जहां से निश्चित अवधि के बाद पुनः पृथ्वी पर लौटना होता है। जब सभी वस्तुएं ईश्वर की हैं तो उसे अपनी इच्छा और अपने अहम के सिवा कोई अन्य वस्तु समर्पित करने में कोई तुक नहीं है। यज्ञों की नैतिक व्याख्या की गयी है। जीवन के तीन काल सोम की तीन आहुतियों के स्थान ले लेते हैं। यज्ञ ‘पुरुषमेघ’ और ‘सर्वमेघ’ जैसे आत्मनिग्रह के कार्य बन जाते हैं जिनमें सर्वस्व-दान और सर्वस्व-त्याग का आदेश है। उदहारण के लिए वृहद्-आरण्यक उपनिषद अश्वमेघ यज्ञ के एक विवरण से आरम्भ होती है और उसकी व्याख्या समाधि के रूप में करती है, जिसमे व्यक्ति अश्व की जगह सम्पूर्ण विश्व को समर्पित करता है और संसार-त्याग द्वारा लौकिक प्रभुता की जगह आत्मिक स्वतंत्रता प्राप्त करता है। प्रत्येक होम में ‘स्वाहा’ कहा जाता है, जिससे अभिप्राय स्वत्व के हनन, अर्थात अहम के त्याग से है। -- सर्वेपल्ली राधाकृष्णन, 'उपनिषदों की भूमिका' , पृष्ठ 48 -49
  • उपनिषदों के ऋषि जाति के नियमों से बंधे नहीं थे। आत्मा की सर्वव्यापकता के सिद्धांत को वे मानव-जीवन की चरम-सीमाओं में फैला देते हैं। सत्यकाम जाबाल यद्यपि अपने पिता का नाम नहीं बता पाता है, फिर भी उसे आध्यात्मिक जीवन की शिक्षा दी जाती है। यह कथा इस बात का प्रमाण है कि उपनिषदों के रचयिता रीति-रिवाज के कड़े आदेशों से अधिक मान्यता उन दिव्य और आत्मिक नियमों को देते हैं, जो आज या कल के नहीं, बल्कि शाश्वत नियम हैं और जिनके बारे में कोई भी मनुष्य यह नहीं जानता कि उनका जन्म कैसे हुआ। ‘तत त्वम् असि’ ये शब्द इतने जाने-पहचाने हैं कि वे पूर्ण अर्थावबोध से पहले ही हमारे मन पर से फिसल जाते हैं।-- सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ( उपनिषदों की भूमिका -पृष्ठ -50 )
  • ज्ञान के वृक्ष पर उपनिषद से सुन्दर पुष्प दूसरा नहीं है और वेदान्त दर्शन से अच्छा फल नहीं है। -- Paul Deussen ; source: History of Philosophy, Paul Deussen .Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
  • उपनिषद, होमर जितने प्राचीन हैं और कान्ट जितने आधुनिक । -- विल्ल डुरन्ट (1963). Our Oriental heritage. New York: Simon & Schuster.
  • जैसे जैसे हम उपनिषदों का अध्ययन करते हैं, वैसे वैसे हमे ऐसा लगता है कि इस मार्ग पर चलना सरल नहीं है। इन भारतीय अन्तर्दृष्टियों के सामने हमारी पाश्चात्य धूर्तता हमारे बर्बर स्वभाव की निशानी है। उनकी असाधारण गहराई और आश्चर्यजनक मनोवैज्ञानिक यथार्थता का हमारे स्वभाव को दूर-दूर तक आभास नहीं होता। -- Carl Jung ; source: Psychological Types, Carl G. Jung. Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
  • प्रत्येक वाक्य से गहरे मौलिक और उदात्त विचार उत्पन्न होते हैं, तथा सम्पूर्ण (उपनिषदों में) एक उच्च, पवित्र और गंभीर आत्मा है। सम्पूर्ण संसार में उपनिषदों के जितना लाभदायक और इतना ऊंचा उठाने वाला कोई दूसरा अध्ययन नहीं है ... मेरे जीवन में इसी से सान्त्वना मिलती रही है रहा है; और मेरी मृत्यु को इसी से शान्ति मिलेगी। वे (उपनिषद) उच्चतम ज्ञान की उपज हैं... -- आर्थर शोपेनहावर ; quoted in A Look at India From the Views of Other Scholars, by Stephen Knapp [7], quoted in Schopenhauer on Self, World and Morality: Vedantic and Non-Vedantic Perspectives by A. Barua. Also in Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.
  • संस्कृत साहित्य हमारी शताब्दी का सर्वोत्तम उपहार है। -- आर्थर शोपेनहावर ; quoted in Londhe, S. (2008). A tribute to Hinduism: Thoughts and wisdom spanning continents and time about India and her culture. New Delhi: Pragun Publication.
  • मैं प्रश्न पूछने के लिये उपनिषदों को पढ़ता हूँ। -- नील्स बोर ; स्रोत : Indian Conquests of the Mind, Saibal Gupta. Quoted from Gewali, Salil (2013). Great Minds on India. New Delhi: Penguin Random House.

इन्हें भी देखें[सम्पादन]