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इन्द्रियविजय

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  • धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ -- मनुस्मृति
धर्म के ये दस लक्षण होते हैं:- धृति (धैर्य), क्षमा, दम (मन को अधर्म से हटा कर धर्म में लगाना) अस्तेय (चोरी न करना), शौच (सफाई), इन्द्रियों को वश में रखना, धी (बुद्धि), विद्या, सत्य, अक्रोध (क्रोध न करना)।
  • वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ -- भगवद्गीता
जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है (स्थिर है)।
  • विषयेन्द्रियसंयोगात् यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥ -- गीता १८/३८
विषय और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होने वाला सुख आरम्भ में अमृत के समान और अन्त में विष के समान है। वह सुख रजोगुणी (राजस) सुख माना गया है।
  • सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलं अर्थः। अर्थस्य मूलं राज्स्य। राज्स्य मूलं इन्द्रियजयः। -- चाणक्य
सुख का मूल है, धर्म। धर्म का मूल है, अर्थ। अर्थ का मूल है, राज्य। राज्य का मूल है, इन्द्रियों पर विजय।
  • तावज्जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रियः पुमान् ।
न जयेद् रसनं यावज्जितं सर्वं जिते रसे ॥ -- भागवत पुराण
भले ही कोई मनुष्य अन्य सारी इन्द्रियों को क्यों न जीत ले, किन्तु जब तक जीभ को नहीं जीत लिया जाता, तब तक वह इन्द्रियजित नहीं कहलाता। किन्तु यदि कोई मनुष्य जीभ को वश में करने में सक्षम होता है, तो उसे सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण करने वाला माना जाता है।
  • इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु ।
संयमे यत्नमातिष्ठेत् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम् ॥ -- मनुस्मृति
जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों में खींचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करें।
  • इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छति मानवः ।
संनियम्य तु तान्येव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ -- मनुस्मृति
जीवात्मा इन्द्रियों के वश होकर निश्चित बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त होता है। (इसके विपरीत) जब इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है तभी सिद्धि को प्राप्त होता है।
  • इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन गतिं गच्छति दारुणाम् ।
विजित्य तान्येव नरः सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ -- विष्णुधर्मोत्तरपुराण
  • श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः ।
न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः ॥ मनुस्मृति २-९८ ॥
सुन के, स्पर्श करके, देख के, भोजन करके, सूँघ कर जो नर न तो आनन्दित होता है न ही दुखी होता है, वह जितेन्द्रिय माना जाता है।