अरुण शौरी
दिखावट
अरुण शौरी भारत के एक अर्थशास्त्री, सम्पादक एवं विचारक हैं। वे दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पूर्व प्रधान सम्पादक, पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा अपने निर्भीक विचारों के लिए जाते हैं।
उक्तियाँ
[सम्पादन]- सभी सर्वाधिकारी विचारधाराओं का सार यही है कि वे जीवन के हर पहलू को बलपूर्वक नियंत्रित करते हैं। इस सन्दर्भ में कुरान, हदीथ और फतवा भी इसी प्रकार का एक प्रयास है। ये भी जीवन के हरेक पहलू को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। यह विचारधारा केवल इतना ही नहीं है कि इस्लाम को मानने वाले, उसे न मानने वालों से अलग हैं तथा श्रेष्ठतर हैं। (बल्कि) यह विचारधारा इसे मानने वालों और न मानने वालों के बीच शाश्वत शत्रुता पर आधारित है। धर्मोन्माद, आतंकवाद और आक्रमण इस विचारधारा के अपरिहार्य परिणाम हैं। इसी कारण उन समाजों में मुसलमानों का शान्ति से रहना लगभग असम्भव है जहाँ मुसलमानों के अलावा अन्य समुदाय भी रहते हों। वास्तव में इसी विचारधारा के कारण किसी इस्लामी राज्य का उस संसार में शान्तिपूर्वक रहना असम्भव है जहाँ गैर-इस्लामी राज्य भी हों। -- अरुण शौरी, द वर्ड ऑफ फतवाज (या The Shariah In Action), New Delhi, 1995, pp. 629, 654-655. quoted in Bostom, A. G. (2015). Sharia versus freedom: The legacy of Islamic totalitarianism.
- लेकिन इस्लामी बैंक और इस्लामी देशों के बैंक दिए गए कर्जों पर दूसरी जगहों पर मौजूद दूसरे बैंकों की अपेक्षा कुछ कम ब्याज वसूल नहीं करते और न ही मुसलमान जमाकर्ताओं को कम ब्याज अदा करते हैं। मुसलमान भी उसी तरह ब्याज वसूल करते हैं, जिस तरह कोई गैर मुस्लिम करता हैं। प्राचीन काल से बीसियों ऐसे क़ानूनी तरीके ढूंढ निकाले गए हैं, जोकि आज भी, उदहारण के तौर पर पाकिस्तान में, इस्तेमाल किये जा रहे हैं जिनके ज़रिये कर्जदार ब्याज अदा करता है और ब्याज लेता है-लेकिन इस तरह से, कि उसको नाम कोई और दिया जाता है। उदहारण के तौर पर एक ऐसा तरीका है जिसके तहत जिस आदमी को कर्ज की जरुरत पड़ती है, वह कुछ सामान,कर्ज देने वाले, मिसाल के तौर पर बैंक, के पास, जमानत के तौर पर सिर्फ गिरवी ही नहीं रखता बल्कि वह उसे बेच देता है। और फिर उसी क्षण वह कर्ज़ देने वाले से ज्यादा कीमत पर वह सामान वापिस खरीद लेता है। जिस कीमत पर सामान बेचा गया था और जिस कीमत पर सामान वह उसे वापिस खरीदता है, इन दोनों कीमतों के बीच का फ़र्क, बैंक का मुनाफ़ा मान लिया जाता है। होता यों है कि वह उस राशि के बराबर हो, जोकि बैंक बतौर ब्याज़ वसूल करता! यह तरकीब इमाम मलिक ही स्वयं मदीना में ही प्रचलित हो गई थी, अर्थात पैगम्बर साहिब के आखिरी ख़ुत्बे से एक सदी बाद से ही यह प्रचलन में है। एक अंतर अवश्य है। उस समय गुलाम बेचे-ख़रीदे जाते थे। आजकल सामान होता है। लेकिन उपाय बिलकुल वही है।-- अरुण शौरी, अपनी पुस्तक "फ़तवे, उलेमा और उनकी दुनिया" के पृष्ठ 341 पर इस्लाम में सूदखोरी की समीक्षा करते हुए
- मध्य काल का प्रत्येक मुसलमान इतिहासकार ने उन शासकों द्वारा विनष्ट मन्दिरों और उनके स्थान पर बनायी गयी मसजिदों की सूची न दी है जिन शासकों के बारे में उन्होंने लिखा है।-- Indian controversies : Essays on religion in politics (1993 ; पृष्ठ 429)
- प्रत्येक वाक्य झूठा है। ... और आपने कभी बीबीसी को नवाज शरीफ को 'फंडामेन्टलिस्ट', 'उन्मादी' आदि कहते हुए सुना है? -- एक सेक्युलर एजेन्डा, १९९३ में
अरुण शौरी के बारे में विचार
[सम्पादन]- भारत को १९९८ में अरूण शौरी की पुस्तक 'एमिनेन्ट हिस्टोरियन्स' के प्रकाशन तक प्रतीक्षा करना पड़ा। इस पुस्तक ने तीन दशक से अधिक समय तक राष्ट्रीय मानस पर किये गये बहु-स्तरीय हमलों से पर्दा हटाया और एक के बाद दूसरा विस्तृत विवरण प्रकाशित किया जिससे लोग अपने ही देश के उन सत्यों को जान सके। -- एस बालकृष्णन, सेक्युलरिज्म के ७० वर्ष ; 2018