मन्त्र

विकिसूक्ति से
  • अमन्त्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥ -- सुभाषितरत्नाकर
कोई अक्षर ऐसा नहीं है, जो मंत्र न हो और कोई भी वनस्पति की जड़ ऐसी नहीं है कि जो दवा ना हो, कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं है। वहाँ (सभी चीजों को) जोड़ने वाला ही दुर्लभ है।
  • शक्तिस्त्रिविधा ज्ञान-बलं मन्त्र-शक्तिः । कोश-दण्ड-बलं प्रभु-शक्तिः । विक्रम-बलं उत्साह-शक्तिः ॥ -- अर्थशास्त्र ०६.२.३३
शक्ति तीन प्रकार की होती है। ज्ञान का बल मन्त्रशक्ति है। कोश और दण्ड का बल प्रभुशक्ति है। विक्रम का बल उत्साहशक्ति है।
  • राज्यं नाम शक्तित्रयायत्तं शक्तयश्च मन्त्रप्रभावोत्साहाः परस्परानुगृहीताः कृत्येषु क्रमन्ते । मन्त्रेण हि विनिश्चयोऽर्थानां प्रभावेण प्रारम्भः उत्साहेन निर्वहणम् । -- दशकुमारचरित
राज्य तीन शक्तियों से मिलकर बनत है, ये शक्तियाँ हैं- मन्त्र, प्रभाव और उत्साह जो परस्पर अनुगृहीत होकर कार्यों में आतीं हैं। मन्त्र से यह निश्चित होता है कि क्य क्यों कैसे करना चाहिये, प्रभाव से कार्य प्रारम्भ होता है, उत्साह से काम बिना रूके आगे बढ़ता है।
  • एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते ।
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः ॥ -- विदुर, महाभारत में
विष से एक ही व्यक्ति मरता है और शस्त्र से एक ही व्यक्ति मारा जाता है। लेकिन मन्त्रविप्लव ( राजा द्वारा लिया गया गलत निर्णय) के होने पर राष्ट्र और प्रजा सहित राजा भी मारा जाता है।
  • यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ -- महाभारत, विदुरनीति
जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को दूसरे लोग कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है।
  • मननात त्रायते यस्मात्तस्मान्मन्त्र उदाहृतः।
जिसके मनन, चिन्तन एवं ध्यान द्वारा संसार के सभी दुखों से रक्षा, मुक्ति एवं परम आनंद प्राप्त होता है, वही मंत्र है।
  • मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन
जिससे आत्मा और परमात्मा का ज्ञान (साक्षात्कार) हो, वही मंत्र है।
  • मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन
जिसके द्वारा आत्मा के आदेश (अंतरात्मा की आवाज) पर विचार किया जाए, वही मंत्र है।
  • मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिताः देवताः
जिसके द्वारा परमपद में स्थित देवता का सत्कार (पूजन/हवन आदि) किया जाए-वही मंत्र है।
  • मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात्। यतः करोति संसिद्धो मन्त्र इत्युच्यते ततः॥
यह ज्योतिर्मय एवं सर्वव्यापक आत्मतत्व का मनन है और यह सिद्ध होने पर रोग, शोक, दुख, दैन्य, पाप, ताप एवं भय आदि से रक्षा करता है, इसलिए मंत्र कहलाता है।
  • मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामित तेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्स्तस्मान्मन्त्र इतीरितः॥
जिससे दिव्य एवं तेजस्वी देवता के रूप का चिन्तन और समस्त दुखों से रक्षा मिले, वही मंत्र है।
  • मननात् त्रायते इति मन्त्रः
जिसके मनन, चिन्तन एवं ध्यान आदि से पूरी-पूरी सुरक्षा एवं सुविधा मिले वही मंत्र है।
  • प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मन्त्राः
अनुष्ठान और पुरश्चरण के पूजन, जप एवं हवन आदि में द्रव्य एवं देवता आदि के स्मारक और अर्थ के प्रकाशक मन्त्र हैं।
  • साधकसाधनसाध्यविवेकः मन्त्रः।
साधना में साधक, साधन एवं साध्य का विवेक ही मंत्र कहलाता है।
  • सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मन्त्राः ज्ञेया शिवात्मिकाः
सभी बीजात्मक वर्ण मंत्र हैं और वे शिव का स्वरूप हैं।
  • मन्त्रो हि गुप्त विज्ञानः
मंत्र गुप्त विज्ञान है, उससे गूढ़ से गूढ़ रहस्य प्राप्त किया जा सकता है।

मन्त्र सम्बन्धी चाणक्य के सूत्र[सम्पादन]

  • मन्त्रमूलाः सर्वारम्भाः ।
मन्त्र ही सभी कार्यों के आरम्भ का मूल है।
  • मन्त्ररक्षणे कार्यसिद्धिर्भवति ।
मन्त्र की रक्षा करने से कार्य सिद्धि होती है। (राजा और मन्त्रियों के बीच में होने वाली मन्त्रणा को पूरी तरह गुप्त (छिपाकर ) रखना चाहिए, तभी कार्य सिद्ध होता है।)
  • मन्त्रविस्रावी कार्य नाशयति ।
मन्त्रविस्रावी कार्य को नष्ट करता है। (राज्य की मन्त्रणाओं को किसी दूसरे व्यक्ति को बताने वाला कार्य का नष्ट कर देता है। इसलिए इसे सावधानी से गुप्त रखें; भेद न खुलने दें।)
  • सर्वद्वारेभ्यो मन्त्रो रक्षयितव्यः ।
सभी द्वारों से मन्त्र की रक्षा करनी चाहिये। (एक देश, दूसरे देश के भेदों को जानने के लिए सदा कई तरह के प्रयत्न करता है, अतः जहाँ से भी भेद फूटने का डर हो उस दरवाजे को कठोरता से बन्द कर देना चाहिए और इन भेदों को पूरी तरह सुरक्षित रखना चाहिए।)
  • मन्त्रसम्पदा राज्यं वर्धते।
मन्त्र-सम्पदा राज्य की वृद्धि करती है।
मन्त्रणाओं की सावधानी से रक्षा करने पर ही देश फलता-फूलता है।
  • श्रेष्ठतमां मन्त्रगुप्तिमाहुः ।
मन्त्र की गोपनीयता श्रेष्ठतम कही गयी है।
  • कार्यन्धस्य प्रदीपो मन्त्रः ।
कार्यान्ध (जिसे पता न हो कि कोई कार्य कैसे किया जाना चाहिये) के लिए मन्त्रणा ही दीपक है।
  • मन्त्रचक्षुषा परछिद्राण्व लोकयन्ति।
मन्त्ररूपी चक्षुओं से राजा शत्रु की दुर्बलताओं को देखता है।
  • मन्त्रकाले न मत्सरः कर्तव्यः ।
मन्त्रणा काल में मत्सर नहीं करना चाहिए ।
  • कार्याकार्यतत्त्वार्थदर्शिनो मन्त्रिणः ।
मन्त्री कार्य-अकार्य (क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये) के तत्त्वार्थदर्शी होते हैं।
  • षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रः ।
छः कानों से मन्त्र भेदन हो जाता है। (कोई योजना दो से तीसरे व्यक्ति को मालूम होने पर भेद खुल जाता है।)

इन्हें भी देखें[सम्पादन]