त्वं तस्या मित्र हन्व धर्दा सस्य दम्भयः॥ -- ऋग्वेद
जो कर्म नहीं करता वह दस्यु है। उसे कोई सुख न होवे, तुम शत्रुओं के समान उसका वध कर दो अथवा दास के समान उस पर अनुशासन करो।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।
एवं त्वयि ना न्यचेतोअस्ति न कर्मं लिप्यते नरे॥ -- ईशावास्योपनिषद्
इस संसार में (अच्छे) कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवन जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस प्रकार जो धर्मयुक्त कर्मों में लगा रहता है, वह अधर्मयुक्त कर्मों में अपने को नहीं लगाता।
मनुष्य जो कुछ अच्छा या बुरा कार्य करता है, उसका फल उसे भोगना ही पड़ता है। अनन्त काल बीत जाने पर भी कर्म, फल को प्रदान किए बिना नाश को प्राप्त नहीं होता।
निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है।
सकल पदरथ एहि जग माँही । करमहीन नर पावत नाहीं॥
अर्थ : इसी संसार में सभी पदार्थ मौजूद हैं किन्तु कर्महीन व्यक्ति को वे नहीं मिलते।
काल्ह करै सो आज कर, अज करै सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करैगा कब॥ (कबीरदास)
कर्मणा सिद्धिः । (कर्म से ही सिद्धि मिलती है।)
कर्मप्रधान बिश्व रचि राखा।
जो जस करई सो तस फल चाखा॥ (तुलसीदास)
अर्थ - यह विश्व कर्मप्रधान है। जो जैसा करता है वह वैसा ही फल पाता (चखता) है।