आदि शंकराचार्य

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आदि शंकराचार्य प्राचीन भारतीय दार्शनिक थे जिन्होंने अद्वैत के सिद्धान्त को स्थापित किया। स्मार्त सम्प्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। उनके जीवनकाल के सम्बन्ध में मतभेद है। विभिन्न विद्वान उनका जीवनकाल ८वीं से १०वीं शताब्दी मानते हैं।

भारतीय सभ्यता में सनातन धर्म के आदि काल से चली आ रही परम्परा के प्रचार, प्रसार में उनका बहुमूल्य योगदान है। पूरे भारत में सनातन धर्म प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने पूरे भारत में चार मठ और बारह ज्योतिर्लिंगों का स्थपाना की। इस कार्य ने पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया।

प्रमुख विचार[सम्पादन]

  • ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥
ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है (इसे वास्तविक या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदान्त द्वारा घोषित किया गया है।
  • आत्मा की गति मोक्ष में हैं।
  • प्राणियोँ के लिए चिन्ता ही ज्वर है।
  • सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है, जो विशेष रूप से शुद्ध किया गया हो।
  • प्रज्वलित दीपक को चमकने के लिए, दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती। उसी प्रकार आत्मा जो स्वयं ज्ञान का स्वरूप है उसे और किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती।
  • यह मोह से भरा हुआ संसार एक स्वप्न की तरह है। यह तब तक ही सत्य प्रतीत होता है जब तक व्यक्ति अज्ञान रुपी निद्रा में सो रहा होता हैं, परन्तु जाग जाने पर इसकी कोई सत्ता नही रहती।
  • सत्य की परिभाषा क्या है? सत्य की इतनी ही परिभाषा है कि जो सदा था, जो सदा है और जो सदा रहेगा।
  • लोग तभी तक याद रखते है जब तक उनकी साँसे चलती है जैसे ही साँसे चलनी बन्द हो जाती हैं सबसे निकट सम्बन्धी, मित्र यहाँ तक की पत्नी भी अपनों से दूर चली जाती है।
  • यदि हृदय में सत्य को जानने की इच्छा है तो बाहरी चीजें अर्थहीन लगती हैं।
  • हर व्यक्ति को यह ज्ञान होना चाहिए कि आत्मा एक राजा के समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरूप हैं।
  • परमात्मा और आत्मा में कोई अन्तर नहीं, ये दोनों एक ही हैं लेकिन अज्ञानता के कारण मनुष्य इन्हें अलग-अलग समझता है।
  • आत्मसंयम क्या है? आंखो को दुनिया की चीज़ों की ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी तत्वों को खुद से दूर रखना।
  • यह परम सत्य है की लोग आपको उसी समय तक याद करते है जब तक आपकी सांसें चलती हैं। इन सांसों के रुकते ही आपके क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त और यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।
  • अज्ञानता के कारण आत्मा सीमित लगती है लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है। जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।
  • कर्म चित्त की शुद्धि के लिए ही है, तत्व दृष्टि के लिए नहीं। सिद्धि तो विचार से ही होती है। करोड़ो कर्मोँ से कुछ भी नहीं हो सकता।
  • अज्ञानता के कारण आत्मा सीमित लगती है लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है। जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।
  • हर व्यक्ति को यह ज्ञान होना चाहिए कि आत्मा एक राजा के समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरूप हैं।
  • ज्ञान की अग्नि सुलगते ही कर्म भस्म हो जाते हैं।
  • मोह से भरा हुआ मनुष्य एक सपने कि तरह है। यह तब तक ही सच लगता है जब तक वह अज्ञान की नींद में सो रहे होते हैं। जब उनकी नींद खुलती है तो इसकी कोई सत्ता नही रह जाती।
  • यथार्थ ज्ञान ही मुक्ति का कारण है और हमें यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति परमार्थिक कर्मोँ से ही होती है।
  • लोग तभी तक याद रखते हैं जब तक उनकी साँसे चलती है जैसे ही साँसे चलनी बन्द हो जाती है सबसे निकट के सम्बन्धी, मित्र यहाँ तक की पत्नी भी अपनों से दूर चली जाती हैं।
  • 'तत्व' की प्राप्ति का मुख्य उपाय ध्यान है। सबसे उत्तम तीर्थ अपना मन है जो विशेष रुप से शुद्ध किया हुआ हो।
  • तीर्थ करने के लिए किसी जगह जाने की आवश्यकता नहीं है। सबसे बड़ा और अच्छा तीर्थ आपका अपना मन है जिसे विशिष्ट रूप से शुद्ध किया गया हो।
  • जिसे सब तरह से संतोष है, वही धनवान है।
  • आत्म अज्ञान के कारण ही सीमित प्रतीत होती है, परन्तु जब अज्ञान मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देता है।
  • पुरुषार्थहीन व्यक्ति जीते जी ही मरा हुआ है।
  • हर व्यक्ति को यह ज्ञान होना चाहिए कि आत्मा एक राजा के समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि से बिल्कुल अलग है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरुप है।
  • आत्मसंयम क्या है ? आंखो को दुनिया की चीज़ों कि ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी ताकतों को खुद से दूर रखना।
  • तीर्थ करने के लिए किसी जगह जाने की जरूरत नहीं है। सबसे बड़ा और अच्छा तीर्थ आपका अपना मन है जिसे विशिष्ट रूप से शुद्ध किया गया हो।
  • सत्य की राह पर चलें, यही सबके कल्याण का मार्ग है।
  • सत्य की कोई भाषा नहीं है। भाषा तो केवल मनुष्य द्वारा बनाई गई है। लेकिन सत्य मनुष्य का निर्माण नहीं, आविष्कार है। सत्य को बनाना या प्रमाणित नहीं करना पड़ता।
  • बाहरी ताकतों को अपने से दूर रखना और दुनिया के तमाम चीजों की तरफ आकर्षित ना होना ही आत्मसंयम कहलाता है।
  • हमें आनन्द तभी मिलता है जब हम आनन्द की खोज नहीं कर रहे होते हैं।
  • जब मन में सत्य जानने की जिज्ञासा पैदा हो जाती है तब दुनिया की बाहरी वस्तुएँ अर्थहीन लगती हैं।
  • सत्य की कोई भाषा नहीं है। भाषा तो सिर्फ मनुष्य द्वारा बनाई गई है लेकिन सत्य मनुष्य का निर्माण नहीं, आविष्कार है। सत्य को बनाना या प्रमाणित नहीं करना पड़ता।
  • यह मोह से भरा हुआ संसार है एक स्वप्न की तरह है, यह तब तक ही सत्य प्रतीत होता है जब तक व्यक्ति अज्ञान रुपी निद्रा में सो रहा होता हैं, परन्तु जाग जाने पर इसकी कोई सत्ता नही रहती।
  • यह परम सत्य है की लोग आपको उसी समय तक याद करते है जब तक आपकी सांसें चलती हैं। इन सांसों के रुकते ही आपके क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त और यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।

इन्हें भी देखें[सम्पादन]