जल

विकिसूक्ति से
  • अद्भिः सर्वाणि भूतानि जीवन्ति प्रभवन्ति च।
तस्मात् सर्वेषु दानेषु तयोदानं विशिष्यते॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व
जल से संसार के सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं और जीवित रहते हैं। अतः सभी दानों में जल का दान सर्वोत्तम माना जाता है।
  • पानीयं परमं लोके जीवानां जीवनं समृतम्।
पानीयस्य प्रदानेन तृप्तिर्भवति पाण्डव।
पानीयस्य गुणा दिव्याः परलोके गुणावहाः॥ -- महाभारत, आश्वमेधिकपर्व
संसार में जल से ही समस्त प्राणियों को जीवन मिलता है। जल का दान करने से प्राणियों की तृप्ति होती है। जल में अनेक दिव्य गुण हैं। ये गुण परलोक में भी लाभ प्रदान करते हैं।
  • अग्नेर्मूतिः क्षितेर्योनिरमृतस्य च सम्भवः।
अतोऽम्भः सर्वभूतानां मूलमित्युच्यते बुधैः॥ -- महाभारत, आश्वमेधिकपर्व
जल को अग्नि का स्वरूप माना गया है। जल, पृथ्वी की योनि है। जल अमृत की उत्पत्ति का स्थान है। इसीलिए महापुरुषों का कहना है कि, जल सभी प्राणियों का आधार है।
  • अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्॥ -- ऋग्वेद 1-23-19
जल में अमृत है, जल में औषधि है।
  • योऽप्युनिष्ठन्नभ्दयोऽन्तरो यमापो न विदुर्यस्यापः।
शरीरं योऽपोऽन्तरो यमयत्येषत आत्मान्तर्याम्यमृतः॥ -- बृहदारण्यकोपनिषद् 3/4
जल में रहने वाला जल के भीतर है जिसे जल नहीं जानता। जल जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर जल का नियमन करता है वह तुम्हारा आत्मा अंतर्यामी अमृत है
  • शुद्धा नः आपस्तन्वे क्षरन्तु यो नः सेदुरप्रिये तं निदहम ।
पवित्रेण पृथिविमोत् पुनामि॥ -- अथर्ववेद 12/1/30
अथर्ववेद में मातृभूमि से प्रार्थना की गयी है कि, हे मातृभूमि ! आप हमारी शुद्धता के लिए स्वच्छ जल प्रवाहित करें । हमारे शरीर से उतरा हुआ जल हमारा अनिष्ट करने के इच्छुकों के पास चला जाय । हे भूमे ! पवित्र शक्ति से हम स्वयं को पावन बनाते है।
  • आपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः।
सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः॥ -- अथर्ववेद 1/4/3
उस देवीरूप जल की हम अभ्यर्थना करते है, जो अन्तरिक्ष के लिए हवि प्रदान करता है तथा जहां हमारी इन्द्रियाँ तृप्त होती है।
  • षोडशकलाः सौम्य पुरुषः पञ्चदशाहानिमाशीः काममपः ।
पिबापोमयः प्राणो न पिबतो विच्छेत्स्यत॥ -- छान्दोग्योपनिषद 6/7/1
मनुष्य सोलह कलाओं से युक्त है, वह पन्द्रह दिन तक बिना भोजन किये हुए केवल जलपान करके भी जीवित रह सकता है, क्योंकि, प्राण जलमय है, इसलिए जल पीते रहने से जीवन का नाश नहीं होगा।
  • प्राणा वै जगतानापो भूतानि भुवनानि च।
बहुनात्र किमुक्तेन चराचरमिदं जगतः॥ -- लिंगपुराण 134/9
जल जगत के प्राण है। जिसमें सब भूत और भुवन है । सम्पूर्ण चर और अचर जगत जल के आधार पर स्थित है।
  • जलं जलेन सृजति जलं पाति जलेन यः।
हरेज्जलं जलेनैव तं कृष्णं भज सन्ततम्॥ -- बह्मवैवर्त पुराण, शंख.34
जो जल से जल का सृजन करता है और जल से जल का पालन करता है तथा जल से ही जल का हरण किया करता है उस कृष्ण का निरंतर भजन करो।
  • आपो नारा इति प्रोक्ता नाम पुर्वमिति श्रुति।
अयनं तस्य ता यस्मात् तेन नारायणा स्मृत॥ -- विष्णु पुराण 1/4/ 6
नर (नारायण) से उत्पन्न होने के कारण जल को नार कहा गया है अतः वह जल नार ही नर का प्रथम अयन अर्थात आश्रयस्थान है अतः उन्हें नारायण कहा जाता है।
  • विवस्वानर्ष्टाभर्मासैरादायापां रसात्मिकाः।
वर्षत्युम्बु ततश्चान्नमन्नादर्प्याखिल जगत्॥ -- विष्णुपुराण 1 9/8
सूर्य आठ मास तक अपनी किरणों से रसस्वरूप जल को ग्रहण करके, उसे चार महीनों में बरसा देता है, उससे अन्न की उत्पति है और अन्न ही से सम्पूर्ण जगत का पोषण होता है।
  • यन्तु मेघैः समुत्सृष्टं वारि तत्प्राणिनां द्विज।
पुष्णात्यौषधयः सर्वा जीवनायामृतं हि तत्॥ -- विष्णुपुराण 1/ 9/19
जो जल मेघों द्वारा बरसाया जाता है, वह प्राणियों के लिए अमृत स्वरूप है और वह जल मनुष्यों के लिए औषधियों का पोषण करता है।
  • तासां वृष्टयूदकानीह यानि निम्नैर्गतानि तु।
अवहन् वृष्टिसतत्या स्रोत स्थानानि निम्नगा॥ -- कु.पु./27/40
सतत बर्षा के कारण जो जल नीचे की ओर प्रवाहित हुआ उससे उनके लिए अनेक स्रोतों तथा नदियों की उत्पत्ति हुई।
  • आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ता ये केचित्सलिलार्थिनः ।
ते तृप्तिमुपगच्छन्तु तडागस्थेन वारिणा ॥ -- अग्निपुराण, १६वाँ अध्याय (कूपादिप्रतिष्ठाकथनम्)
ब्रह्मा से लेकर तृण-पर्यन्त जो भी जलपिपासु हैं, वे इस तडाग में स्थित जल के द्वारा तृप्ति को प्राप्त हों।
  • अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः समाचरेत् ।
एकाहं स्थापयेत्तोयं तत्पुण्यमयुतायुतं ॥ -- अग्निपुराण, १६वाँ अध्याय (कूपादिप्रतिष्ठाकथनम्)
जो मनुष्य लाखों अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करता है तथा जो एक बार भी जलाशय की प्रतिष्ठा करता है, उसका पुण्य उन यज्ञों की अपेक्षा हजारों गुना अधिक है।
  • श्वेते कषायं भवति पाण्डरे स्यात्तिक्तम्।
कपिले क्षारसंसृष्टमूषरे लवणान्वितम्।
कटुपर्वत विस्तारे मधुरं कृष्णमृत्तिके।
एतत्षाड्गुण्यमाख्यातं महीस्थरस्य जलस्य हि॥ -- चरकसंहिता 27/199
भूमि के अनुसार जल की विशेषता भी अलग अलग होती है - सफेद मिट्टी वाली भूमि पर गिरने से जल कषाय वर्ण, पाण्डु वर्ण की भूमि पर गिरने से जल क्षार, उसर भूमि पर गिरने पर जल लवण, पर्वत पर गिरकर बहने वाला जल कटु, और काले मिट्टी पर गिरने वाला जल मधुर होता है इस प्रकार भूमिगत जल के 6 गुण होते हैं।
  • शीतं मदाव्ययग्लानि- मूर्च्छाच्छर्दिश्रमभ्रमान्।
तृष्णोषणदाहपित्तरक्त- विषाण्यम्बु नियच्छति॥ -- अष्टांगहृदय/5/15
शीतल जल मदात्यय, ग्लानि, मूर्च्छा, थकावट, भ्रम, तृषा, उष्मा, दाह, पित्तविकार तथा रक्त विकार को नष्ट करता है।
  • सौवर्णे राजते ताम्रे कांस्ये मणिमये ऽपिवा।
पुष्पावातसं भौमे व सुगन्धि सलिलं पिबेत ॥ -- सुश्रुत संहिता/45/13
पुष्पम से सुगंधित किया हुआ जल, सुवर्ण, चांदी, तांबा, स्फटिक, मिट्टी के बर्तन में पीना चाहिए।
  • जलमेकविधं सर्व पतत्यैन्द्र नभस्तलात्।
तत् पतत् पतितं चैव देशकालावपेज्ञते॥ -- चरकसंहिता /196/27
आकाश से मेघजन्य सभी जल एक ही प्रकार का गिरता है। गिरते हुए आकाश का जल देशकाल के अनुसार गुण या दोष की अपेक्षा करता है।
  • दिवाकरकिरणैर्युष्टं निशायामिन्दुरश्मिभिः।
अरूज्ञमनभिष्यन्दि तत्तुल्यं गगनाम्बुना।
जो जल दिन में सूर्य की किरणों से और रात्रि में चंद्रमा की किरणों से संस्कृत होता है तथा जो रोग्य और अभिष्यन्दी नहीं है, वह जल गुण की दृष्टि से अच्छा माना गया है।
  • गगनाम्बु त्रिदोषन्धं गृहीतं यत् सुभाजने।
बल्यं रसायनं मेघ्यं पात्रपेक्षि ततः परम्॥ -- सुश्रुत संहिता/45/25-26
अच्छे पात्र में ग्रहण किया हुआ, अंतरिक्ष का जल त्रिदोष नाशक, बल कारक, रसायन और बुद्धिवर्धक होता है ।इसके सिवा जैसे पात्र में उसका ग्रहण किया हुआ हो, उसके अनुसार भी जल के गुण होते हैं।
  • पिच्छिलं क्रिमिलक्लिन्नं पर्णशैवालकर्दमैः।
विवर्णं विरसं सान्द्रं दुर्गन्धि न हिंस जलम॥ -- चरक संहिता 27/215
अहितकर जल, चिकना, क्रिमियुक्त, सडे पत्ते, शैवाल, कीचड़ से दूषित, विवर्ण विकृत, विकृत रस युक्त, सान्द्र, गाढ़ा, जो कपडे में न छन सके और जो जल दुग्ध युक्त होता है वह हितकर नहीं होता है।
  • न पिबेत्पंकशैवाल- तृणपर्णविलास्तृतम्।
सूर्येन्दुपवनादृष्टमभिवृष्टं घनं गुरू।
फेनिलं जन्तुमत्तप्तं दन्तग्राह्यतिशैत्यतः॥ -- वागभट्ट अष्टांगहृदय/5
उस जल को नहीं पीये, जो कीचड़, शिवार, तृण तथा पत्तों के सहयोग से मलिन हो तथा उनसे व्याप्त हो और जिस पर सूर्य चंद्रमा की किरणों का तथा शुद्ध वायु का स्पर्श न हो और तुरन्त या प्रथम बार वर्षा हो, जो भारी हो, जिस पर झाग आ रही हो और जो विषाक्त युक्त हो उस जल को नही पीना चाहिए । जो उष्ण तथा अत्यंत शीतल होने से दांतो को लगता हो उसे भी नही पीना चाहिए ।
  • अनार्तवं च यद्दिव्यमार्तवं प्रथमं च यत्।
लूतादितन्तुविण्मूत्र-विषश्लेषदूषितम्॥ -- अष्टांगहृदय
वर्षा ऋतु के अतिरिक्त ऋतुओं में वर्षा की पहली वर्षा, का जल और प्राणियों के तंतु, पूरीष, मूत्र एवं विष के संपर्क से दूषित जल भी नहीं पीना चाहिए ।
  • व्यापन्नसलिलं यस्तु पिबतीहप्रसाधितम्।
श्वायुथपाण्डुरोगं च त्वम्दोषमविपाकताम्॥
श्वासाकारप्रतिश्यायशूलगुल्मोदराणि च।
अन्यान्वा विषमान् रोगान्प्राप्रुयादचिरेण सः॥ -- सुश्रुत संहिता 45/15-16
बिना साफ किए हुए, जो दूषित जल को पीता है । वह शोथ [सूजन], पाण्डुरोग, त्वचा, व्याधि, अजीर्ण, श्वास, जुकाम, शूल, गूल्म, उदर और अन्य विभिन्न प्रकार के विषम रोगों को प्राप्त हो जाता है।
  • ये पुनस्तदपां स्तोका आपन्ना पृथिवीतले।
अपां भूमेश्च संयोगादौषध्यस्तास्तदाऽभवन्॥ -- कू.पु. 27/41
जब पृथ्वी तल पर थोड़ा जल संगृहीत हो जाता है, तो पृथ्वी और जल के संयोग से अनेक प्रकार की औषधियाँ उत्पन्न होती है।
  • वापीकूपताडागोत्ससरः प्रस्श्रवणादिषु॥ -- चरकसंहिता 27/214
वापी, कूप, तड़ाग, उत्स, प्रस्त्रवण ये जल संरक्षण के साधन हैं।
  • अन्नदानरतौ नित्यं जलदानपरायणौ।
तडागारामवाप्यादीनसंख्याकान् वितेनतुः॥ -- वाल्मीकि रामायण 3/11
सदा अन्नदान करते रहना और प्रतिदिन जल दान में प्रवृत्त रहते थे उन्होंने असंख्य पोखरण बगीचों और बावड़ियो का निर्माण करवाया था।
  • रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥ -- रहीम
यहाँ रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयुक्त किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में 'विनम्रता' से है। मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे के बिना संसार का अस्तित्व नहीं हो सकता, मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है उसी तरह विनम्रता के बिना व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं हो सकता। मनुष्य को अपने व्यवहार में हमेशा विनम्रता रखनी चाहिए।
  • यदि इस ग्रह पर जादू है, तो यह पानी में निहित है। -- लोरेन ईसेली
  • पानी सभी प्रकृति की प्रेरक शक्ति है। -- लियोनार्डो दा विंसी
  • पानी की तुलना में कुछ भी नरम या अधिक लचीला नहीं है, फिर भी कुछ भी इसका विरोध नहीं कर सकता है। -- लाओ त्सू
  • हम भूल जाते हैं कि जल चक्र और जीवन चक्र एक हैं। -- Jacques Yves Cousteau
  • पानी की एक बूंद में सभी महासागरों के सभी रहस्य पाए जाते हैं। -- काहिल जिब्रान
  • किसी भी चीज़ का इलाज खारा पानी है: पसीना, आँसू या समुद्र। -- इसाक दिनेसेन
  • हजारों प्यार के बिना रहते हैं, पानी के बिना नहीं। -- डब्ल्यू एच. ऑडेन
  • पानी की एक बूंद, अगर यह अपना इतिहास लिख सकता है, तो ब्रह्मांड को हमें समझाएगा। -- लुसी लारकॉम
  • हम में जीवन एक नदी में पानी की तरह है। -- हेनरी डेविड थोरयू
  • न पानी , न जीवन, न नीला , न हरा । -- सिल्विया अर्ल
  • एक शांत पानी आत्मा की तरह है। -- Lailah Gifty Akita
  • जब कुआँ सूख जाता है, तब उन्हें पानी का महत्व मालूम होता है। -- बेंजामिन फ्रैंकलिन
  • आप पानी में गिरने से नहीं डूबते। आप केवल डूबते हैं अगर आप वहां रहते हैं। -- जिग जिगलर
  • पानी पानी में शामिल होना चाहता है। युवा वर्ग युवाओं से जुड़ना चाहता है। -- हरमन हेस
  • पानी की तरह रहो। प्रवाह, दुर्घटना, उड़ना ! -- एम.डी. जियाउल हक
  • मानव का स्वभाव पानी की तरह होना चाहिए. जैसे पानी अपने पात्र का आकार लेता है.
  • स्वस्थ जीवनशैली के लिए पानी पीना आवश्यक है। -- स्टीफन करी
  • अनुपयोग से लोहे में जंग लग जाता है; पानी ठहराव से अपनी शुद्धता खो देता है यहां तक कि निष्क्रियता भी मन की शक्ति को नष्ट कर देती है। -- लियोनार्डो दा विंसी
  • निश्चय ही जल अमृत है।
  • जल पृथ्वी की आत्मा है। -- डब्ल्यू एच. ऑडेन

इन्हें भी देखें[सम्पादन]

बाहरी कड़ियाँ[सम्पादन]

सन्दर्भ[सम्पादन]