"रामचरितमानस": अवतरणों में अंतर
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'''गोस्वामी तुलसीदास''' कृत '''रामचरितमानस''' के नाम से आज कौन परिचित नहीं है। जिस तरह गुलाब का फूल बारहमासी होता है तथा हर क्षेत्र, हर रंग में पाया जाता है, उसी तरह रामचरितमानस का पाठ भी हर घर में आनन्द और उत्साहपूर्वक होता है।विद्वान साहित्यकार भी अपने आलेखॊं में मानस की पंक्तियों का उल्लेख कर अपनी बात को प्रमाणित करते हैं। तात्पर्य यह कि इसके द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है। इस प्रकार रामचरितमानस विश्व का अनमोल ग्रंथ है, इसमें कोई संदेह नहीं है। |
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रामचरित मानस एहिनामा |
रामचरित मानस एहिनामा |
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लोकमान्यता अनल सम, कर तपकानन दाहु |
लोकमान्यता अनल सम, कर तपकानन दाहु |
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लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है जो तपस्या रूपी बन को भस्म कर डालती है [बालकांड] |
लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है जो तपस्या रूपी बन को भस्म कर डालती है [बालकांड] |
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==मित्र== |
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;जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातकभारी |
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;निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना |
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जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥ |
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;जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥ |
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;कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥ |
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जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥ |
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;देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥ |
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;बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥ |
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देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥ |
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;आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥ |
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;जाकर िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥ |
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जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥ |
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;सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥ |
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;सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥ |
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मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥ |
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[[श्रेणी:हिन्दी लोकोक्तियाँ]] |
[[श्रेणी:हिन्दी लोकोक्तियाँ]] |
११:३७, ९ अगस्त २०११ का अवतरण
गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के नाम से आज कौन परिचित नहीं है। जिस तरह गुलाब का फूल बारहमासी होता है तथा हर क्षेत्र, हर रंग में पाया जाता है, उसी तरह रामचरितमानस का पाठ भी हर घर में आनन्द और उत्साहपूर्वक होता है।विद्वान साहित्यकार भी अपने आलेखॊं में मानस की पंक्तियों का उल्लेख कर अपनी बात को प्रमाणित करते हैं। तात्पर्य यह कि इसके द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान सम्भव है। इस प्रकार रामचरितमानस विश्व का अनमोल ग्रंथ है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
रामचरित मानस एहिनामा सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा॥
शोधकर्ताओं के लिए रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें अनेक रत्न भरे पडे हैं तथा इसका अध्ययन-मंथन सदा नूतन लगता है। जितनी बार इसे पढा़ जाय, उतनी ही बार नई-नई रहस्यपूर्ण बातों का ज्ञान होता है। अनेक विद्वानों एवं साहित्यकारों ने इस महान ग्रंथ को अपने शोध का विषय बनाकर पीएच.डी. एवं डी.लिट. की उपाधियां प्राप्त की हैं, कर रहे हैं तथा करते रहेंगे।
रामचरितमानस के हर पद में महाकवि तुलसीदास के चिंतन, विचारों, अनुभवों के अमृतकण सूक्तियों के रूप में बिखरे हैं। विभिन्न भावों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण सूक्तियां नीचे प्रस्तुत हैं--
जो जग काम नचावन जेही.. जगत में ऐसा कौन है, जिसे काम ने नचाया न हो [उत्तरकांड]
खल सन कलह न भल नहिं प्रीति खल के साथ न कलह अच्छा न प्रेम अच्छा [उत्तरकांड]
केहिं कर हृदय क्रोध नहिं दाहा क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया [उत्तरकांड]
चिंता सांपिनि को नहिं खाया चिंता रूपी सांपिन ने किसे नहीं डंसा [उत्तरकांड]
तप ते अगम न कछु संसारा संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके [बालकांड]
तृष्णा केहि न कीन्ह बीराहा तृष्णा ने किसको बावला नहीं किया [उत्तरकांड]
नवनि नीच के अति दुःखदाई, जिमि अंकुस धनु उरग विलाई नीच का झुकना भी अत्यन्त दुखदायी होता है, जैसे -अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना .[उत्तरकांड]
परहित सरस धरम नहिं भाई परोपकार के समान दूसरा धर्म नहीं है [उत्तरकांड]
पर पीडा़ सम नहिं अधमाई दूसरों को पीडित करने जैसा कोई पाप नहीं है [उत्तरकांड]
दुचित कतहुं परितोष न लहहीं चित्त के दोतरफा हो जाने से कहीं परितोष नहीं मिलता [अयोध्या कांड]
तसि पूजा चाहिअ जस देवा जैसा देवता हो, वैसी उसकी पूजा होनी चाहिए [अयोध्याकांड]
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो [बालकांड]
प्रीति विरोध समान सन करिअ नीति असि आहि प्रीति और बैर बराबरी में करना चाहिए [लंकाकांड]
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला सभी मानस रोगों की जड़ मोह / अज्ञान है [उत्तरकांड]
कीरति भनिति भूति भलि सोई सुरसरि सम सब कहं हित होई कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की भांति सबका हित करती है [बालकांड]
सचिव बैद गुरु तीनि जौं , प्रिय बोलहिं भय आस राज, धर्म,तन तीनि कर, होई बेगहिं नास मंत्री, बैद्य और गुरु ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या लाभ की आशा से ठकुरसुहाती कहते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीथ्र ही नाश हो जाता है [सुन्दरकांड]
लोकमान्यता अनल सम, कर तपकानन दाहु लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है जो तपस्या रूपी बन को भस्म कर डालती है [बालकांड]
मित्र
- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातकभारी
- निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना
जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जाने॥1॥
- जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
- कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है, वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणों को छिपावे॥2॥
- देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
- बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥
देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे। विपत्ति के समय तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं॥3॥
- आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
- जाकर िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई! (इस तरह) जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है॥4॥
- सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
- सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र- ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा! मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा (तुम्हारी सहायता करूँगा)॥5॥