"पंचतंत्र": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) ' * नहि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्धयति। : यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत्॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, २) :: इस विश्व में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो धन के द्व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया |
(कोई अंतर नहीं)
|
२२:२८, १७ जनवरी २०२२ का अवतरण
- नहि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्धयति।
- यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत्॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, २)
- इस विश्व में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो धन के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती। अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक धन का ही उपार्जन करना चाहिए।
- यस्याऽर्थास्तस्य मित्राणि, यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः।
- यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोके, यस्याऽर्थाः स च पण्डितः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ३)
- जिसके पास धन है उसी के सभी भाई-बन्धु, सगे-सम्बन्धी हैं। जिसके पास धन है वही इन इस लोक में पुरुष है और जिसके पास धन है वही विद्वान् है।
- न सा विद्या न तद्दान न तत्छिल्पं न सा कला।
- न तत्स्थैर्यं हि धनिनां याचकैर्यन्न गीयते॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ४)
- इस विश्व में, ऐसी कोई विद्या, ऐसा कोई दान, ऐसा कोई शिल्प, ऐसी कोई कला एवं ऐसी कोई दृढ़ता, शूरता या स्थिति नहीं है जिसका वर्णन याचकगण धनिकों की प्रशंसा करते समय न करते हों।
- इह लोके हि धनिनां परोऽपि सुजनायते।
- स्वजनोऽपि दरिद्राणां सर्वदा दुर्जनायते॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ५)
- इस संसार में पराये भी धनी व्यक्ति के लिये सुजन बन जाते हैं और दरिद्र व्यक्तियों के स्वजन भी उसके प्रति दुर्जनता का ही व्यवहार करते हैं।
- अर्थेभ्योऽतिप्रवृद्धेभ्यः संवृत्तेभ्यस्ततस्ततः।
- प्रवर्तन्ते क्रियाः सर्वाः पर्वतेभ्य इवापगाः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ६)
- विभिन्न स्रोतों से जलसञ्चय के द्वारा जिस प्रकार समस्त नदियाँ पर्वत से स्वयं निकलती हैं, उसी प्रकार विभिन्न उपायों के द्वारा एकत्रित धन से मनुष्य के सम्पूर्ण कार्य स्वतः सम्पन्न हो जाते हैं।
- पूज्यते यदपूज्योऽपि यदगम्योऽपि गम्यते।
- वन्द्यते यदवन्द्योऽपि स प्रभावो धनस्य च॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ७)
- यह धन का ही प्रभाव है कि अपूज्य मनुष्य भी पूजा जाता है, जहाँ जाना कठिन है वहाँ भी व्ह चला जाता है, और अवन्द्य व्यक्ति भी वन्द्य हो जाता है।
- अशनादिन्द्रियाणीव स्युः कार्पण्यखिलान्यपि।
- एतस्मातकारणाद्वित्तं सर्वसाधनमुच्यते॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ८)
- भोजन से सशक्त इन्द्रियाँ जिस प्रकार शरीर के समस्त कार्यों को स्वतः करती रहती हैं, उसी प्रकार मनुष्य की समस्त आवश्यकतायें भी धन से स्वतः पूर्ण होती हैं। अतएव धन को सब कुछ साधने वाला कहा गया है।
- अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते।
- त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निःस्वं गच्छति दूरतः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, ९)
- धन के प्रति आसक्त व्यक्ति श्मशान की भी उपासना करता है और निर्धन माता-पिता को छोड़कर अन्यत्र चला जाता है।
- गतवयसामपि पुरुषां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः।
- अर्थेन तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः॥ (पञ्चतन्त्र, मित्रभेद, १०)
- धनसम्पन्न व्यक्ति वृद्ध होने पर भी तरुण बना रहता है और तरुण व्यक्ति भी निर्धनता के कारण वृद्ध हो जाता है।