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हिमालय

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हिमालय भारत के उत्तर में स्थित एक महान पर्वतशृंखला है। भारतीय साहित्य में इसका अनेक स्थलों पर उल्लेख हुआ है।

उद्धरण

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  • अस्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्यां इव मानदण्डः ॥ -- कालिदास कृत कुमारसम्भवम् के प्रथम सर्ग का प्रथम श्लोक
(भारतवर्ष के) उत्तर दिशा में देवताओं की आत्मा वाला पर्वतों का राजा हिमालय है, जो पूर्व और पश्चिम दोनों समुद्रों का अवगाहन करके पृथ्वी के मापने के दण्ड के समान स्थित है। तात्पर्य यह है कि हिमालय का विस्तार ऐसा है कि वह पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं के समुद्रों को छू रहा है।)
  • उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥ -- विष्णुपुराण २।३।१
समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो पवित्र भूभाग स्थित है, उसका नाम भारतवर्ष है, जहाँ भरत के संतति निवास करते हैं ।
  • धर्मव्याख्यातुकामस्य षट् पदार्थविवेचनम्।
समुद्रं गन्तुकामस्य हिमवद् गमनं यथा॥ -- अज्ञात
अर्थात् जैसे कोई मनुष्य समुद्र पर्यन्त जाने की इच्छा रखते हुए हिमालय में चला जाता है, उसी प्रकार धर्म के व्याख्यान के इच्छुक (कणाद मुनि) षट् पदार्थों का विवेचन करते रह गए। ध्यातव्य है कि कणादकृत विशेषिकसूत्र का पहला सूत्र 'अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः' है जो इंगित करता है कि इस ग्रन्थ का आरम्भ 'धर्म की व्याख्या' के प्रयोजन से किया गया था।
  • अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः।
राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव॥ -- महाभारत, शान्तिपर्व
जिसमें क्रोध का अभाव होता है, जो दुर्व्यसनों से दूर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लिया है वह राजा हिमालय के समान सम्पूर्ण प्राणियों का विश्वासपात्र बन जाता है।
  • असारे अस्मिन संसारे सारं श्वसुर मन्दिरम्।
हरो हिमालये शेते हरि: शेते महोदधौ ॥
इस सारहीन जगत में केवल श्वशुर का घर रहने योग्य है । इसी कारण शंकर भगवान हिमालय में रहते है और विष्णु क्षीरसागर में।
  • हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है बढे चलो,बढे चलो ॥
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि-से जलो
प्रवीर हो जयी बनो, बढे चलो बढे चलो ! -- जयशंकर प्रसाद, चन्द्रगुप्त नाटक
( भावार्थ : तक्षशिला की राजकुमारी अलका अपने सैनिकों को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हिमालय के ऊँचे शिखर से ज्ञानवान और पवित्र माँ भरती तुम्हे पुकार रही है। तुम अमर वीरों की सन्तान हो। तुम्हारा पथ प्रशस्त है। दृढ प्रतिज्ञा करो और आगे बढ़ते जाओ। जो मातृभूमि की सन्तान हैं और देश प्रेम के लिये मर मिटने को तैयार हैं, उनकी दिव्यगाथा असंख्य किरणों की तरह युग-युग तक बनी रहती है। हे मातृभूमि के सपूतों, तुम महान वीर और साहसी हो। इसलिये स्वतन्त्रता के पथ पर रुको नहीं, बढ़ते चलो। शत्रु की समुद्र के समान बढी सेना में तुम बड़वाग्नि (समुद्र में लगने वाली आग) के समान जलो और उसे नष्ट कर दो। तुम महान वीर हो, निश्चित ही तुम्हारी जीत होगी।)
  • भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहाँ ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ ।।
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश को उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है॥ -- मैथिलीशरण गुप्त
  • जब हम संस्कृत साहित्य पर ध्यान डालते हैं तो अनन्त की संकल्पना हमारे सामने आ जाती है। सबसे लंबा जीवन भी उन कार्यों के अवलोकन के लिए पर्याप्त नहीं होगा जो भारत की सीमा से परे हिमालय की तरह हर देश की विशालतम संरचना से ऊपर उभरे और फूले हुए हैं। -- विलियम जोन्स
  • यदि भारत की कोई धर्मग्रन्थ (बाइबल) संकलित की जाए तो उसमें वेद, उपनिषदें और भगवत्गीता मानवीय आत्मा के हिमालय के समान सबसे ऊपर उठे हुए ग्रन्थ होंगे। -- जे० मास्करो (J. Mascaro)

इन्हें भी देखें

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