रामप्रसाद बिस्मिल

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रामप्रसाद बिस्मिल (11 जून 1897 - 19 दिसम्बर 1927) भारत के अग्रणी स्वतन्त्रता सेनानी, क्रान्तिकारी, कवि एवं लेखक के साथ-साथ उर्दू भाषा के शायर भी थे। 'बिस्मिल', 'अज्ञात' और 'राम' के उपनाम से उन्होंने कई कविताएँ व हिन्दी पुस्तकें लिखीं। उन्हें बरतानिया सरकार ने 30 वर्ष की आयु में फाँसी पर लटका कर मार दिया ।

उद्धरण[सम्पादन]

गद्य[सम्पादन]

  • "जब तक कर्म क्षय नहीं होता, आत्मा को जन्म मरण के बन्धन में पड़ना ही होता है, यह शास्‍त्रों का निश्‍चय है। यद्यपि यह बात वह परब्रह्म ही जानता है कि किन कर्मों के परिणामस्वरूप कौन सा शरीर इस आत्मा को ग्रहण करना होगा किन्तु अपने लिए यह मेरा दृढ़ निश्‍चय है कि मैं उत्तम शरीर धारण कर नवीन शक्‍तियों सहित अति शीघ्र ही पुनः भारतवर्ष में ही किसी निकटवर्ती सम्बन्धी या इष्‍ट मित्र के गृह में जन्म ग्रहण करूँगा, क्योंकि मेरा जन्म-जन्मान्तर उद्देश्य रहेगा कि मनुष्य मात्र को सभी प्रकृति पदार्थों पर समानाधिकार प्राप्‍त हो। कोई किसी पर हकूमत न करे। सारे संसार में जनतन्त्र की स्थापना हो। वर्तमान समय में भारतवर्ष की अवस्था बड़ी शोचनीय है। अतएव लगातार कई जन्म इसी देश में ग्रहण करने होंगे और जब तक कि भारतवर्ष के नर-नारी पूर्णतया सर्वरूपेण स्वतन्त्र न हो जायें, परमात्मा से मेरी यह प्रार्थना होगी कि वह मुझे इसी देश में जन्म दे, ताकि उसकी पवित्र वाणी - वेद वाणी का अनुपम घोष मनुष्य मात्र के कानों तक पहुँचाने में समर्थ हो सकूँ। सम्भव है कि मैं मार्ग-निर्धारण में भूल करूँ, पर इसमें मेरा कोई विशेष दोष नहीं, क्योंकि मैं भी तो अल्पज्ञ जीव मात्र ही हूँ। भूल न करना केवल सर्वज्ञ से ही सम्भव है। हमें परिस्थितियों के अनुसार ही सब कार्य करने पड़े और करने होंगे। परमात्मा अगले जन्म से सुबुद्धि प्रदान करे ताकि मैं जिस मार्ग का अनुसरण करूँ वह त्रुटि रहित ही हो।"[१]
  • "भारतवासियों में शिक्षा का अभाव है। वे साधारण से साधारण सामाजिक उन्नति करने में भी असमर्थ हैं। फिर राजनैतिक क्रान्ति की बात कौन कहे? राजनैतिक क्रान्ति के लिए सर्वप्रथम क्रान्तिकारियों का संगठन ऐसा होना चाहिये कि अनेक विघ्न तथा बाधाओं के उपस्थित होने पर भी संगठन में किसी प्रकार त्रुटि न आये। सब कार्य यथावत् चलते रहें। कार्यकर्त्ता इतने योग्य तथा पर्याप्‍त संख्या में होने चाहिये कि एक की अनुपस्थिति में दूसरा स्थानपूर्ति के लिये सदा उद्यत रहे। भारतवर्ष में कई बार कितने ही षड्यन्त्रों का भण्डा फूट गया और सब किया कराया काम चौपट हो गया। जब क्रान्तिकारी दलों की यह अवस्था है तो फिर क्रान्ति के लिये उद्योग कौन करे! देशवासी इतने शिक्षित हों कि वे वर्तमान सरकार की नीति को समझकर अपने हानि-लाभ को जानने में समर्थ हो सकें। वे यह भी पूर्णतया समझते हों कि वर्तमान सरकार को हटाना आवश्यक है या नहीं। साथ ही साथ उनमें इतनी बुद्धि भी होनी चाहिये कि किस रीति से सरकार को हटाया जा सकता है?"[२]
  • "क्रान्ति का नाम ही बड़ा भयंकर है। प्रत्येक प्रकार की क्रान्ति विपक्षियों को भयभीत कर देती है। जहाँ पर रात्रि होती है तो दिन का आगमन जान निशिचरों को दुःख होता है। ठंडे जलवायु में रहने वाले पशु-पक्षी गरमी के आने पर उस देश को भी त्याग देते हैं। फिर राजनैतिक क्रान्ति तो बड़ी भयावनी होती है। मनुष्य अभ्यासों का समूह है। अभ्यासों के अनुसार ही उसकी प्रकृति भी बन जाती है। उसके विपरीत जिस समय कोई बाधा उपस्थित होती है, तो उनको भय प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्‍त प्रत्येक सरकार के सहायक अमीर और जमींदार होते हैं। ये लोग कभी नहीं चाहते कि उनके ऐशो आराम में किसी प्रकार की बाधा पड़े। इसलिये वे हमेशा क्रान्तिकारी आन्दोलन को नष्‍ट करने का प्रयत्‍न करते हैं। यदि किसी प्रकार दूसरे देशों की सहायता लेकर, समय पाकर क्रान्तिकारी दल क्रान्ति के उद्योगों में सफल हो जाये, देश में क्रान्ति हो जाए तो भी योग्य नेता न होने से अराजकता फैलकर व्यर्थ की नरहत्या होती है, और उस प्रयत्‍न में अनेकों सुयोग्य वीरों तथा विद्वानों का नाश हो जाता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण सन् 1857 ई० का गदर है। यदि फ्रांस तथा अमरीका की भाँति क्रान्ति द्वारा राजतन्त्र को पलट कर प्रजातंत्र स्थापित भी कर लिया जाये तो बड़े-बड़े धनी पुरुष अपने धन, बल से सब प्रकार के अधिकारियों को दबा बैठते हैं। कार्यकारिणी समितियों में बड़े-बड़े अधिकार धनियों को प्राप्‍त हो जाते हैं। देश के शासन में धनियों का मत ही उच्च आदर पाता है। धन बल से देश के समाचार पत्रों, कल कारखानों तथा खानों पर उनका ही अधिकार हो जाता है। मजबूरन जनता की अधिक संख्या धनिकों का समर्थन करने को बाध्य हो जाती है। जो दिमाग वाले होते हैं, वे भी समय पाकर बुद्दिबल से जनता की खरी कमाई से प्राप्‍त किए अधिकारों को हड़प कर बैठते हैं। स्वार्थ के वशीभूत होकर वे श्रमजीवियों तथा कृषकों को उन्नति का अवसर नहीं देते। अन्त में ये लोग भी धनिकों के पक्षपाती होकर राजतन्त्र के स्थान में धनिकतन्‍त्र की ही स्थापना करते हैं।"[३]
  • मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूँ।
  • संसार में जितने भी बड़े आदमी हुए हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्यं के प्रताप से ही बने हैं और सैकड़ों-हजारों वर्षों बाद भी उनका यशोगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्यं की महिमा यदि जाननी हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, बंदा वैरागी, राम कृष्ण, महर्षि दयानंद, विवेकानंद तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन अवश्य करें।
  • मेरा यह दृढ निश्चय है कि मैं उत्तम शरीर धारण कर नवीन शक्तियों सहित अति शीघ्र ही पुनः भारत में ही किसी निकटवर्ती संबंधी या इष्ट मित्र के गृह में जन्म ग्रहण करूँगा क्योंकि मेरा जन्म-जन्मान्तरों में भी यही उद्देश्य रहेगा कि मनुष्य मात्र को सभी प्राकृतिक साधनों पर समानाधिकार प्राप्त हो। कोई किसी पर हुकूमत न करे।
  • किसी को घृणा तथा उपेक्षा की दृष्टि से न देखा जाये, किन्तु सबके साथ करुणा सहित प्रेमभाव का बर्ताव किया जाए।
  • …मैं जानता हूँ कि मैं मरूँगा, किन्तु मैं मरने से नहीं घबराता। किन्तु जनाब, क्या इससे सरकार का उद्देश्य पूर्ण होगा? क्या इसी तरह हमेशा भारत माँ के वक्षस्थल पर विदेशियों का तांडव नृत्य होता रहेगा? कदापि नहीं। इतिहास इसका प्रमाण है। मैं मरूँगा किन्तु फिर दुबारा जन्म लूँगा और मातृभूमि का उद्धार करूँगा।
  • यदि देशहित मरना पड़े मुझे सहस्रों बार भी, तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी। हे ईश! भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो, कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।
  • यदि किसी के मन में जोश, उमंग या उत्तेजना पैदा हो तो शीघ्र गावों में जाकर कृषक की दशा सुधारें।
  • पंथ, सम्प्रदाय, मजहब अनेक हो सकते हैं, किन्तु धर्म तो एक ही होता है। यदि पंथ-सम्प्रदाय उस एक ईश्वर की उपासना के लिए प्रेरणा देते हैं तो ठीक अन्यथा शक्ति का बाना पहनकर सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना न धर्म है और न ही ईश्वर भक्ति।
  • मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि तथा उसकी दीन संतति के लिए नए उत्साह और ओज के साथ काम करने के लिए शीघ्र ही फिर लौट आयेगी।

पद्य[सम्पादन]

  • "खे लेने दो नाव आज कल कर पतवार गहे न गहे।
जीवन-सरिता में शायद फिर ऐसी धार बहे न बहे।
अन्तिम साँस निकलने तक है 'बिस्मिल' की अभिलाष यही-
तेरा वैभव अमर रहे माँ! हम दिन चार रहे न रहे।"[४]
  • "खुश्बू-ए-वतन जब भी इधर घूम के निकले ।
कहियेगा मिरे नक्शे-कदम चूम के निकले।
'बिस्मिल' का नहीं कौम की पाकीज़ा जमीं के-
आशिक का जनाजा है जरा झूम के निकले।"[५]
  • न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना।
मुझे वर दे यही माता! रहूँ भारत पे दीवाना।
मुझे हो प्रेम हिन्दी से,पढूँ हिन्दी लिखूँ हिन्दी;
चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहनना-ओढना-खाना।
रहे मेरे भवन में रौशनी, हिन्दी-चिरागों की;
कि जिसकी लौ पे जलकर खाक हो 'बिस्मिल'-सा परवाना।[६]
  • हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को![७]
  • अपनी किस्मत में अजल से ये सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मुहिम रक्खी थी गम रक्खा था,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादिए-गुर्बत में क़दम रक्खा था,
दूर तक यादे-वतन आई थी समझाने को![८]
  • दिल फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को![९]
  • यदि देश-सेवा हित पड़े मरना सहस्रों बार भी,
तो भी न मैं इस क्लेश को निज ध्यान में लाऊँ कभी;
हे ईश! भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो![१०]
  • माँ! तुझे इस जन्म में कुछ सुख न दे पाये कभी,
फिर जनम लेंगे यहीं यह कौल कर जाते हैं हम!
शीघ्र करके यत्न मेरे देश! फिर आकर तुझे,
दुश्मनों से छीन लेंगे यह कसम खाते हैं हम![११]
  • सौ तरीके काम करने के हैं कोई काम कर।
जिस तरह भी हो सके दुनिया में पैदा नाम कर।
जाके यह कह दे ज़रा बेदर्द क़ातिल से कोई -
कुछ समझकर सोचकर 'बिस्मिल' को तू बदनाम कर।[१२]



सन्दर्भ[सम्पादन]

  1. मदनलाल वर्मा, 'क्रान्त' (2014) सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग-3) रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा निज जीवन की एक छटा, प्रवीण प्रकाशन अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-926097-4-4, पृष्ठ 85
  2. मदनलाल वर्मा, 'क्रान्त' (2014) सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग-3) रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा निज जीवन की एक छटा, प्रवीण प्रकाशन अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-926097-4-4, पृष्ठ 75-76
  3. मदनलाल वर्मा, 'क्रान्त' (2014) सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग-3) रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा निज जीवन की एक छटा, प्रवीण प्रकाशन अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-926097-4-4, पृष्ठ 76
  4. मदनलाल वर्मा, 'क्रान्त' (2014) सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग-2) रामप्रसाद बिस्मिल की ज़ब्तशुदा आग्नेय कविताएँ प्रवीण प्रकाशन अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-926097-3-7, पृष्ठ 170
  5. मदनलाल वर्मा, 'क्रान्त' (2014) सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग-2) रामप्रसाद बिस्मिल की ज़ब्तशुदा आग्नेय कविताएँ प्रवीण प्रकाशन अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-926097-3-7, पृष्ठ 175
  6. शोध एवं सम्पादन: मदनलाल वर्मा 'क्रान्त', मन की लहर (कविताएँ), संग्रहकर्ता एवं लेखक: पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल', प्रवीण प्रकाशन 23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-7783-127-5, संस्करण: 2009, पृष्ठ 26
  7. शोध एवं सम्पादन: मदनलाल वर्मा 'क्रान्त', क्रान्ति गीतांजलि, संग्रहकर्ता एवं लेखक: श्रीयुत् पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल' (काकोरी के शहीद), प्रवीण प्रकाशन 23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-7783-128-3, संस्करण: 2006, पृष्ठ 19
  8. शोध एवं सम्पादन: मदनलाल वर्मा 'क्रान्त', क्रान्ति गीतांजलि, संग्रहकर्ता एवं लेखक: श्रीयुत् पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल' (काकोरी के शहीद), प्रवीण प्रकाशन 23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-7783-128-3, संस्करण: 2006, पृष्ठ 19
  9. शोध एवं सम्पादन: मदनलाल वर्मा 'क्रान्त', क्रान्ति गीतांजलि, संग्रहकर्ता एवं लेखक: श्रीयुत् पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल' (काकोरी के शहीद), प्रवीण प्रकाशन 23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-7783-128-3, संस्करण: 2006, पृष्ठ 18
  10. शोध एवं सम्पादन: मदनलाल वर्मा 'क्रान्त', मन की लहर (कविताएँ), संग्रहकर्ता एवं लेखक: पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल', प्रवीण प्रकाशन 23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-7783-127-5, संस्करण: 2009, पृष्ठ 29
  11. शोध एवं सम्पादन: मदनलाल वर्मा 'क्रान्त', मन की लहर (कविताएँ), संग्रहकर्ता एवं लेखक: पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल', प्रवीण प्रकाशन 23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-7783-127-5, संस्करण: 2009, पृष्ठ 35
  12. मदनलाल वर्मा, 'क्रान्त' (2014) सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग-2) रामप्रसाद बिस्मिल की ज़ब्तशुदा आग्नेय कविताएँ प्रवीण प्रकाशन अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002, ISBN: 978-81-926097-3-7, पृष्ठ 85
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