भीमराव आम्बेडकर

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भीमराव आम्बेडकर

भीमराव रामजी आम्बेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसम्बर, 1956), भारत के एक विद्वान, न्यायविद, अर्थशास्त्री, राजनेता और लेखक थे। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मन्त्री थे। भारतीय संविधान के निर्माण में उनकी महती भूमिका है।

सुवचन[सम्पादन]

  • जीवन लम्बा होने की बजाय महान होना चाहिए।
  • हर व्यक्ति जो मिल का सिद्धान्त जानता हो कि एक देश दूसरे देश पर राज करने में फिट नहीं है, उसे ये भी स्वीकार करना चाहिये कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर राज करने में फिट नहीं है।
  • उदासीनता लोगों को प्रभावित करने वाली सबसे खराब किस्म की बीमारी है।
  • यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरुपयोग किया जा रहा है, तो मैं इसे सबसे पहले जलाऊंगा।
  • समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फिर भी इसे एक गवर्निंग सिद्धान्त रूप में स्वीकार करना होगा।
  • एक सुरक्षित सेना एक सुरक्षित सीमा से बेहतर है।
  • लोग और उनके धर्म, सामाजिक नैतिकता के आधार पर सामाजिक मानकों द्वारा परखे जाने चाहिए। अगर धर्म को लोगों के भले के लिये आवश्यक वस्तु मान लिया जायेगा तो और किसी मानक का मतलब नहीं होगा।
  • बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।
  • मैं ऐसे धर्म को मानता हूँ जो स्वतंत्रता, समानता, और भाई-चारा सिखाये।
  • यह जरूरी है कि हम अपना दृष्टिकोण और हृदय जितना सभव हो अच्छा करें। इसी से हमारे और अन्य लोगों के जीवन में, अल्पकाल और दीर्घकाल दोनों में ही खुशियाँ आएगीं।
  • मैं एक समुदाय की प्रगति का माप महिलाओं द्वारा हासिल प्रगति के माप से करता हूँ।
  • एक महान व्यक्ति एक प्रख्यात व्यक्ति से एक ही बिंदु पर भिन्न हैं कि, महान व्यक्ति समाज का सेवक बनने के लिए तत्पर रहता हैं।
  • मनुष्य नश्वर हैं। ऐसे विचार भी होते हैं। एक विचार को प्रचार-प्रसार की जरूरत है जैसे एक पौधे में पानी की जरूरत की जरूरत होती है। अन्यथा दोनों मुरझा जायेंगे और मर जायेंगे।
  • इतिहास बताता है कि जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है वहां जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है।
  • निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल ना लगाया गया हो।
  • एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना काफी नहीं है। जिसकी आवश्यकता है वो है राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों के महत्व, जरुरत व न्याय में पूर्णतया गहराई से दोष।
  • जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हासिल कर लेते, कानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके लिये बेमानी है।

  • हम आदि से अन्त तक भारतीय हैं।
  • सागर में मिलकर अपनी पहचान खो देने वाली पानी की एक बूँद के विपरीत, इंसान जिस समाज में रहता है वहां अपनी पहचान नहीं खोता। मानव का जीवन स्वतंत्र है। वो सिर्फ समाज के विकास के लिए नहीं पैदा हुआ है, बल्कि स्वयं के विकास के लिए पैदा हुआ है।
  • पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध घनिष्ट मित्रों के सम्बन्ध के समान होना चाहिए।
  • हिंदू धर्म में, विवेक, कारण, और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।
  • मनुष्य एवम उसके धर्म को समाज के द्वारा नैतिकता के आधार पर चयन करना चाहिये। अगर धर्म को ही मनुष्य के लिए सब कुछ मान लिया जायेगा तो किन्ही और मानको का कोई मूल्य नहीं रह जायेगा।
  • एक सफल क्रांति के लिए सिर्फ असंतोष का होना ही काफी नहीं है, बल्कि इसके लिए न्याय, राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों में गहरी आस्था का होना भी बहुत आवश्यक है।
  • इतिहास गवाह है कि जहाँ नैतिकता और अर्थशास्त्र के बीच संघर्ष होता है वहां जीत हमेशा अर्थशास्त्र की होती है। निहित स्वार्थों को तब तक स्वेच्छा से नहीं छोड़ा गया है जब तक कि मजबूर करने के लिए पर्याप्त बल ना लगाया गया हो।
  • किसी भी कौम का विकास उस कौम की महिलाओं के विकास से मापा जाता है।
  • एक महान व्यक्ति एक प्रख्यात व्यक्ति से एक ही बिंदु पर भिन्न हैं कि महान व्यक्ति समाज का सेवक बनने के लिए तत्पर रहता हैं।
  • जो व्यक्ति अपनी मौत को हमेशा याद रखता है वह सदा अच्छे कार्य में लगा रहता है।
  • जिस तरह मनुष्य नश्वर है ठीक उसी तरह विचार भी नश्वर हैं। जिस तरह पौधे को पानी की जरूरत पड़ती है उसी तरह एक विचार को प्रचार-प्रसार की जरुरत होती है वरना दोनों मुरझा कर मर जाते है।
  • जिस तरह हर एक व्यक्ति यह सिधांत दोहराता हैं कि एक देश दुसरे देश पर शासन नहीं कर सकता उसी प्रकार उसे यह भी मानना होगा कि एक वर्ग दुसरे पर शासन नहीं कर सकता।
  • आज भारतीय दो अलग-अलग विचारधाराओं द्वारा शासित हो रहे हैं। उनके राजनीतिक आदर्श जो संविधान के प्रस्तावना में इंगित हैं वो स्वतंत्रता, समानता, और भाई-चारे को स्थापित करते हैं और उनके धर्म में समाहित सामाजिक आदर्श इससे इनकार करते हैं।
  • उदासीनता लोगों को प्रभावित करने वाली सबसे खराब किस्म की बीमारी है।
  • एक महान व्यक्ति एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से अलग है क्योंकि वह समाज का सेवक बनने के लिए तैयार रहता है।
  • क़ानून और व्यवस्था राजनीति रूपी शरीर की दवा है और जब राजनीति रूपी शरीर बीमार पड़ जाएँ तो दवा अवश्य दी जानी चाहिए।
  • जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता नहीं हांसिल कर लेते, क़ानून आपको जो भी स्वतंत्रता देता है वो आपके किसी काम की नहीं।
  • यदि मुझे लगा कि संविधान का दुरुपयोग किया जा रहा है, तो मैं इसे सबसे पहले जलाऊंगा।
  • यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते हैं, तो सभी धर्मों के धर्मग्रंथों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए।
  • राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है और एक सुधारक जो समाज को खारिज कर देता है वो सरकार को खारिज कर देने वाले राजनीतिज्ञ से ज्यादा साहसी हैं।
  • लोग और उनके धर्म, सामाजिक नैतिकता के आधार पर, सामाजिक मानकों द्वारा परखे जाने चाहिए। अगर धर्म को लोगों के भले के लिये आवश्यक वस्तु मान लिया जायेगा तो और किसी मानक का मतलब नहीं होगा।
  • समानता एक कल्पना हो सकती है, लेकिन फिर भी इसे एक गवर्निंग सिद्धांत रूप में स्वीकार करना होगा।
  • हमारे पास यह स्वतंत्रता किस लिए है? हमारे पास ये स्वत्नत्रता इसलिए है ताकि हम अपने सामाजिक व्यवस्था, जो असमानता, भेद-भाव और अन्य चीजों से भरी है, जो हमारे मौलिक अधिकारों से टकराव में है, को सुधार सकें।
  • मेरे नाम की जय-जयकार करने से अच्‍छा है, मेरे बताए हुए रास्‍ते पर चलें।
  • रात रातभर मैं इसलिये जागता हूँ क्‍योंकि मेरा समाज सो रहा है।
  • जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती, वह कौम कभी भी इतिहास नहीं बना सकती।
  • अपने भाग्य के बजाय अपनी मजबूती पर विश्वास करो।
  • मैं राजनीति में सुख भोगने नहीं बल्कि अपने सभी दबे-कुचले भाईयों को उनके अधिकार दिलाने आया हूँ।
  • मनुवाद को जड़ से समाप्‍त करना मेरे जीवन का प्रथम लक्ष्‍य है।
  • जो धर्म जन्‍म से एक को श्रेष्‍ठ और दूसरे को नीच बनाए रखे, वह धर्म नहीं, गुलाम बनाए रखने का षड़यंत्र है।
  • राष्‍ट्रवाद तभी औचित्‍य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नरल या रंग का अन्‍तर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातृत्‍व को सर्वोच्‍च स्‍थान दिया जाये।
  • मैं तो जीवन भर कार्य कर चुका हूँ अब इसके लिए नौजवान आगे आए।
  • अच्छा दिखने के लिए मत जिओ बल्कि अच्छा बनने के लिए जिओ।
  • जो झुक सकता है वह सारी दुनिया को झुका भी सकता है!
  • लोकतंत्र सरकार का महज एक रूप नहीं है।
  • एक इतिहासकार, सटीक, ईमानदार और निष्‍पक्ष होना चाहिए।
  • संविधान, यह एक मात्र वकीलों का दस्‍तावेज नहीं। यह जीवन का एक माध्‍यम है।
  • किसी का भी स्‍वाद बदला जा सकता है लेकिन जहर को अमृत में परिवर्तित नही किया जा सकता।
  • न्‍याय हमेशा समानता के विचार को पैदा करता है।
  • मन की स्‍वतंत्रता ही वास्‍तविक स्‍वतंत्रता है।
  • ज्ञान व्‍‍यक्ति के जीवन का आधार हैं।
  • शिक्षा जितनी पुरूषों के लिए आवशयक है उतनी ही महिलाओं के लिए।
  • महात्‍मा आये और चले गये परन्‍तु अछुत, अछुत ही बने हुए हैं।
  • स्‍वतंत्रता का रहस्‍य, साहस है और साहस एक पार्टी में व्‍यक्तियों के संयोजन से पैदा होता है।
  • इस दुनिया में महान प्रयासों से प्राप्‍त किया गया को छोडकर और कुछ भी बहुमूल्‍य नहीं है।

इस्लाम और मुसलमान पर विचार[सम्पादन]

  • मुस्लिम आक्रान्ता निःसंदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगाकर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो वरदान माना जाता। वे इतने ही नकारात्मक परिणाम से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने तो भारत में इस्लाम का पौधा रोपा। इस पौधे का विकास बखूबी हुआ और यह एक बड़ा ओक का पेड़ बन गया।
  • मुसलमान कभी भी मातृभूमि के भक्त नहीं हो सकते। हिन्दुओं से कभी उनके दिल मिल नहीं सकते। देश में रह कर शत्रुता पालते रहने की अपेक्षा उन्हें अलग राष्ट्र दे देना चाहिए। भारतीय मुसलमानों का यह कहना है कि वे पहले मुसलमान हैं और फिर भारतीय हैं। उनकी निष्ठाएं देश-बाह्य होती हैं। देश से बाहर के मुस्लिम राष्ट्रों की सहायता लेकर भारत में इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करने की उनकी तैयारी है। जिस देश में मुस्लिम राज्य नहीं हो, वहाँ यदि इस्लामी कानून और उस देश के कानून में टकराव पैदा हुआ तो इस्लामी कानून ही श्रेष्ठ समझा जाना चाहिए। देश का कानून झटक कर इस्लामी कानून मानना मुसलमान समर्थनीय समझते हैं। -- ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’
  • ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि प्रकार के भेद सिर्फ हिन्दू धर्म में ही हैं, ऐसी बात नहीं। इस तरह के भेद ईसाई और इस्लाम में भी दिखाई देते हैं।
  • यदि मैं इस्लाम स्वीकार करूँगा तो इस देश में मुसलमानों की संख्या दूनी हो जाएगी और मुस्लिम प्रभुत्व का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
  • जो कोई भी व्यक्ति एशिया के नक्शे को देखेगा उसे यह ध्यान में आ जाएगा कि किस तरह यह देश दो पाटों के बीच फंस गया है। एक ओर चीन व जापान जैसे भिन्न संस्कृतियों के राष्ट्रों का फंदा है तो दूसरी ओर तुर्की, पर्शिया और अफगानिस्तान जैसे तीन मुस्लिम राष्ट्रों का फंदा पड़ा हुआ है। इन दोनों के बीच फंसे हुए इस देश को बड़ी सतर्कता से रहना चाहिए, ऐसा हमें लगता है... इन परिस्थितियों में चीन एवं जापान में से किसी ने यदि हमला किया तो... उनके हमले का सब लोग एकजुट होकर सामना करेंगे। मगर स्वाधीन हो चुके हिन्दुस्थान पर यदि तुर्की, पर्शिया या अफगानिस्तान जैसे तीन मुस्लिम राष्ट्रों में से किसी एक ने भी हमला किया तो क्या कोई इस बात की आश्वस्ति दे सकता है कि इस हमले का सब लोग एकजुटता से सामना करेंगे? हम तो यह आश्वस्ति नहीं दे सकते। -- 18 जनवरी, 1929 को ‘नेहरू कमेटी की योजना और हिन्दुस्थान का भविष्य’ शीर्षक से 'बहिष्कृत भारत' में एक अग्रलेख
  • इस्लाम एक क्लोज कॉर्पोरेशन है और इसकी विशेषता ही यह है कि मुस्लिम और गैर मुस्लिम के बीच वास्तविक भेद करता है। इस्लाम का बंधुत्व मानवता का सार्वभौम बंधुत्व नहीं है। यह बंधुत्व केवल मुसलमान का मुसलमान के प्रति है। दूसरे शब्दों में इस्लाम कभी एक सच्चे मुसलमान को ऐसी अनुमति नहीं देगा कि आप भारत को अपनी मातृभूमि मानो और किसी हिन्दू को अपना आत्मीय बंधु।
  • मुसलमानों में एक और उन्माद का दुर्गुण है। जो कैनन लॉ या जिहाद के नाम से प्रचलित है। एक मुसलमान शासक के लिए जरूरी है कि जब तक पूरी दुनिया में इस्लाम की सत्ता न फैल जाए तब तक चैन से न बैठे। इस तरह पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंटी है दार-उल-इस्लाम (इस्लाम के अधीन) और दार-उल-हर्ब (युद्ध के मुहाने पर)। चाहे तो सारे देश एक श्रेणी के अधीन आयें अथवा अन्य श्रेणी में। तकनीकी तौर पर यह मुस्लिम शासकों का कर्तव्य है कि कौन ऐसा करने में सक्षम है। जो दार-उल-हर्ब को दर उल इस्लाम में परिवर्तित कर दे। भारत में मुसलमान हिजरत में रुचि लेते हैं तो वे जिहाद का हिस्सा बनने से भी हिचकेंगे नहीं।
  • प्रत्येक हिन्दू के मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि पाकिस्तान बनने के बाद हिन्दुस्तान से साम्प्रदायिकता का मामला हटेगा या नहीं, यह एक जायज प्रश्न था और इस पर विचार किया जाना जरूरी था। यह भी स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के बन जाने से हिन्दुस्तान साम्प्रदायिक प्रश्न से मुक्त नहीं हो पाया। पाकिस्तान की सीमाओं की पुनर्रचना कर भले ही इसे सजातीय राज्य बना दिया गया हो लेकिन भारत को तो एक मिश्रित राज्य ही बना रहेगा। हिन्दुस्तान में मुसलमान सभी जगह बिखरे हुए हैं, इसलिए वे ज्यादातर कस्बों में एकत्रित होते हैं। इसलिए इनकी सीमाओं की पुनर्रचना और सजातीयता के आधार पर निर्धारण सरल नहीं है। हिन्दुस्तान को सजातीय बनाने का एक ही रास्ता है कि जनसंख्या की अदला-बदली सुनिश्चित हो, जब तक यह नहीं किया जाता तब तक यह स्वीकारना पड़ेगा कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी, बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की समस्या और हिन्दुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह बनी रहेगी।
  • मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुःखद है। किन्तु उससे भी अधिक दुःखद तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आंदोलन नहीं उभरा जो इन बुराइयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके। हिंदुओं में भी अनेक सामाजिक बुराइयां हैं, परन्तु संतोष की बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराइयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आन्दोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराइयां हैं, परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते। इसके विपरीत, अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं।
  • मुसलमानों की सोच में लोकतंत्र प्रमुखता नहीं है। उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्व यह है कि लोकतंत्र प्रमुख नहीं है। उनकी सोच को प्रभावित करने वाला तत्व यह है कि लोकतंत्र, जिसका मतलब बहुमत का शासन है, हिन्दुओं के विरुद्ध संघर्ष में मुसलमानों पर क्या असर डालेगा। क्या उससे वे मजबूत होंगे अथवा कमजोर? यदि लोकतंत्र से वे कमजोर पड़ते हैं तो वे लोकतंत्र नहीं चाहेंगे। वे किसी मुस्लिम रियासत में हिंदू प्रजा का मुस्लिम शासक की पकड़ कमजोर करने के बजाए अपने निकम्मे राज्य को वरीयता देंगे।
  • मुस्लिम संप्रदाय में राजनीतिक और सामाजिक गतिरोध का केवल ही कारण बताया जा सकता है। मुसलमान सोचते हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को सतत संघर्षरत रहना चाहिए। हिंदू मुसलमानों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं, और मुसलमान अपनी शासक होने की ऐतिहासिक हैसियसत बनाए रखने का।
  • मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया और दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है। चेकों के विरुद्ध सुडेटेन जर्मनों ने जिन तौर-तरीकों को अपनाया था वे उसका जानबूझकर तथा समझते हुए अनुकरण करते प्रतीत हो रहे हैं।[१]
  • पर्दा प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाएं अन्य जातियों की महिलाओं से पिछड़ जाती हैं। वो किसी भी तरह की बाहरी गतिविधियों में भाग नहीं ले पातीं हैं जिसके चलते उनमें एक प्रकार की दासता और हीनता की मनोवृत्ति बनी रहती है। उनमें ज्ञान प्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहती क्योंकि उन्हें यही सिखाया जाता है कि वो घर की चारदीवारी के बाहर वे अन्य किसी बात में रुचि न लें। पर्दे वाली महिलाएं प्रायः डरपोक, निस्साहय, शर्मीली और जीवन में किसी भी प्रकार का संघर्ष करने के अयोग्य हो जाती हैं। भारत में पर्दा करने वाली महिलाओं की विशाल संख्या को देखते हुए कोई भी आसानी से ये समझ सकता है कि पर्दे की समस्या कितनी व्यापक और गंभीर है। -- 'पाकिस्तान, अथवा भारत का विभाजन'
  • पर्दा प्रथा ने मुस्लिम पुरुषों की नैतिकता पर विपरीत प्रभाव डाला है। पर्दा प्रथा के कारण कोई मुसलमान अपने घर-परिवार से बाहर की महिलाओं से कोई परिचय नहीं कर पाता। घऱ की महिलाओं से भी उसका संपर्क यदा-कदा बातचीत तक ही सीमित रहता है। बच्चों और वृद्धों के अलावा पुरुष अन्य महिलाओं से हिल-मिल नहीं सकता, अपने अंतरंग साथी से भी नहीं मिल पाता। महिलाओं से पुरुषों की ये पृथकता निश्चित रूप से पुरुष के नैतिक बल पर विकृत प्रभाव डालती है। ये कहने के लिए किसी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता नहीं कि ऐसी सामाजिक प्रणाली से जो पुरुषों और महिलाओं के बीच के संपर्क को काट दे उससे यौनाचार के प्रति ऐसी अस्वस्थ प्रवृत्ति का सृजन होता है जो आप्राकृतिक और अन्य गंदी आदतों और साधनों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है।
  • ऐसी पृथकता का मुस्लिम महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। वो खून की कमी, टीबी, पायरिया और कई अन्य रोगों से पीड़ित हो जाती हैं। उनका शरीर भी मजबूत नहीं रह पाता और उनकी कमर भी झुकती जाती है, उनकी हड्डियां निकल आती हैं, हाथ और पांव में खम पड़ जाता है, वे कुरूप हो जाती हैं। पसलियों, जो़ड़ों और ज्यादातर सभी हडिड्यों में दर्द रहता है। उनमें हृदय की धड़कन बढ़ने का सिलसिला भी प्राय: पाया जाता है। इन सभी कमजोरियों के फलस्वरूप प्रसूति काल (डिलिवरी) के दौरान अधिकांश की मृत्यु हो जाती है। पर्दाप्रथा के कारण मुस्लिम महिलाओं का मानसिक और नैतिक विकास भी नहीं हो पाता। स्वस्थ्य सामाजिक जीवन से वंचित रहने से उनमें गलत प्रवृत्ति आ जाती है। बाहरी दुनिया से बिल्कुल अलग-थलग रहने के कारण उनका ध्यान तुच्छ पारिवारिक झगड़ों में ही उलझा रहता है। इसका परिणाम संकीर्ण सोच और संकुचित दृष्टिकोण के रूप में सामने आता है।
  • ऐसा नहीं है कि पर्दा और ऐसी ही अन्य बुराइयां देश के कुछ भागों में हिंदुओं के कई वर्गों में प्रचलित नहीं हैं। परन्तु अन्तर केवल यही है कि मुसलमानों में पर्दा-प्रथा को एक धार्मिक आधार पर मान्यता दी गई है, लेकिन हिन्दुओं में ऐसा नहीं है। हिन्दुओं की तुलना में मुसलमानों में पर्दा-प्रथा की जड़े गहरी हैं। मुसलमानों में पर्दाप्रथा एक वास्तविक समस्या है और जबकि हिंदुओं में ऐसा नहीं है। मुसलमानों ने इसे समाप्त करने का कभी प्रयास किया हो इसका भी कोई साक्ष्य नहीं मिलता है।[२]

अस्पृश्यता पर विचार[सम्पादन]

  • वैदिक काल में, और उसके बाद शताब्दियों तक अस्पृश्यता का अस्तित्व नहीं मिलता है। इसका उद्गम बहुत बाद में हुआ और इसका सम्बन्ध बौद्ध धर्म के बाद परिवर्तनों से पैदा हुई परिस्थितियों से है। भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बौद्ध धर्म ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। देश की जनता और सारा व्यापारी वर्ग बौद्ध धर्म में चला गया था। ब्राह्मणवाद का पतन हो गया था, जो शताब्दियों से राज कर रहा था। बुद्ध ने तीन शिक्षाएं दीं– सामाजिक समानता की, वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन की और अहिंसा के सिद्धान्त की, जिसमें धर्म के नाम पर पशु बलि वर्जित थी। उस समय तक ब्राह्मण शाकाहारी नहीं हुए थे, वे गौओं और अन्य पशुओं की बलि देते थे और उनका मांस खाते थे। जब बुद्ध ने बलि का निषेध किया और गाय को कृषि और दूध के लिये उपयोगी पशु बताते हुए उसकी सुरक्षा की शिक्षा दी, तो जनता ने उसे अपना लिया। तब, ब्राह्मणों के सामने शाकाहारी बनने के सिवा कोई चारा नहीं था। अब गाय पवित्र हो गयी थी और उसकी बलि देने की प्रथा समाप्त हो गयी थी। बहुत सारी बुद्ध शिक्षाएं हिंदू धर्म में समाहित कर लीं गयी थीं। जो जनता बौद्ध धर्म में चली गयी थी, वह भी धीरे–धीरे वापिस आने लगी थी। बुद्ध की जो सबसे बड़ी शिक्षा ब्राह्मणों ने स्वीकार नहीं की, वह थी समानता और वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन। न तो बुद्ध ने और न ब्राह्मणों ने मृतक पशु के मांस को खाने पर रोक लगायी थी। रोक केवल जीवित गाय का वध करने पर थी। पर, आज के अछूतों का एक बड़ा अपराध यह है कि वे गरीबों में सबसे गरीब और सामाजिक रूप से सबसे निचले स्तर के होने के कारण बौद्ध धर्म में लम्बे समय तक बने रहे और मृतक पशु का मांस खाते रहे। उनको सुधारने के लिये एक बड़ी शक्ति की जरूरत थी, जो उनके लिये लम्बे समय तक काम करती। पर ऐसा कोई काम तो नहीं हुआ, उलटे, सामाजिक बहिष्कार और अस्पृश्यता उन पर लागू कर दी गयी। -- 'दि बाम्बे क्रानिकल’ को दिए गये साक्षात्कार में जो 24 फरवरी 1940 के अंक में प्रकाशित हुआ।

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बाह्य सूत्र[सम्पादन]

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